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अनिल त्रिवेदी पेशे से वकील और किसान है, लेकिन इसके अलावा भी वे बहुत कुछ हैं। वे सर्वोदयी और समाजवादी चिंतक विचारक हैं। मानवाधिकार और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं। वे आरटीआई कार्यकर्ता और नेता हैं। उन्हें चित्रकारी और फोटोग्राफी का शौक हैं। जिंदगी जीने का उनका अपना तरीका है। उस तरीके के हजारों लोग प्रशंसक भी है।

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अनिल त्रिवेदी अपना काम खुद करते हैं। अपने कपड़े खुद धोते हैं, अपने घर और ऑफिस की सफाई का काम खुद करते हैं। उनका मानना है कि अगर हर आदमी अपना काम हाथों से करके अगर एक यूनिट बिजली भी रोज बचा ले, तो देश में ऊर्जा का संकट काफी हद तक हल हो सकता है।

अनिल त्रिवेदी रोज कम से कम पांच ऐसे लोगों से मिलते है, जिन्हें वे नहीं जानते। उन लोगों से मिलकर वे गांव, समाज और देश की बातें करते है और उनकी राय जानते हैं। जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था, तब वे अपनी पत्नी के साथ श्रीनगर गए और लाल चौक के करीब गुरूद्वारे में रूके। कश्मीर घूमते वक्त उन्होंने वहां के लोकल ऑटो रिक्शा की मदद ली। उनकी राय में कश्मीर का महत्व वहां के लोगों के कारण है। वहां के लोग क्या सोचते हैं यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है।

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इंदौर के भोलाराम उस्ताद मार्ग पर उनका घर है। करीब एक एकड़ में स्थित यह त्रिवेदी परिसर सैकड़ों जानवरों और पशु-पक्षियों का भी घर है। उनके घर में सांप, मेंढक, घोघे, चिड़िया आदि भी रहते है। उनके आंगन में करीब 750 दरख्त है, जिनमें से 15-20 दिन फलदार है और बाकी प्रकृति की देन। इन पेड़ों के पत्तों से वे खाद बाते है और उसे ही जैविक खेती के लिए उपयोग में लाते है।

अनिल त्रिवेदी हर साल बारिश के ठीक पहले तरह-तरह के बीजों की थैलियां लेकर बियाबान बंजरों में और पहाड़ी ढलानों पर जाते है और वहां बीज बिखेरकर उस पर थोड़ी मिट्टी डाल देते हैं। उनका मानना है कि यहां उनका काम खत्म हुआ, उसके बाद प्रकृति का काम शुरू होता है। जब बारिश होती है, तब वे बीज अंकुरित हो जाते है और धीरे-धीरे पौधे और फिर वृक्ष में तब्दील होने लगते है। उन्होंने ऐसे हजारों पेड़ पिछले 35 सालों में उगाए है, लेकिन लाखों पौधे भेड़-बकरियां भी तो खा गए होंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं कि अगर उन पौधों को जानवरों ने खा लिया है, तो इसमें गलत क्या है? यह तो उनका भोजन था, जो प्रकृति ने उन्हें दिया है। यह धरती कोई मनुष्य के बाप की नहीं है।

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त्रिवेदी परिवार में शादियां भी अलग तरीके से होती है। सुबह के वक्त होने वाली यह शादियां एक-डेढ़ घंटे में हो जाती है और उसमें दिखावा नहीं होता। गांधीवादी तरीके से होने वाली इन शादियों में दूल्हा-दुल्हन को झा़ड़ू लगानी होती है, साफ-सफाई करनी होती है, पौधारोपण करना होता है, सूत कातना होता है और गीता का पाठ करना पड़ता है। शादी में शामिल होने वालों को अल्पाहार के रूप में संतरा या केला या ऐसा ही कोई फल दिया जाता है।

अनिल त्रिवेदी ने विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लड़े है। समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी के वे उम्मीदवार रहे है। उनकी जमानत भी जब्त हुई है, लेकिन वे चुनाव से कभी डरे नहीं। उनका मानना है कि चुनाव लोकतंत्र की जान है और महत्वपूूर्ण बात है कि चुनाव विचारों के लिए लड़े जाने चाहिए। भारतीय समाज जिस तरह से सहभागिता करने वाला समाज नहीं रहा और अब वह केवल दर्शक समाज बनकर रह गया है, यह बहुत चिंता की बात है। राजनीति और बाजार मनुष्य की खोज है, लेकिन आज राजनीति पर बाजार हावी होता जा रहा है। ऐसे में आम आदमी को भीड़ समझा जाने लगा है और नेताओं ने लोगों को ही समस्या मान लिया है। असली बात यह है कि हमारी आबादी हमारी सबसे बड़ी संपदा है। अगर हम उसका उपयोग नहीं कर पा रहे है, तो यह हमारे तंत्र की गलती है। हमारे युवा सोच नहीं पा रहे है और न ही वे अपने आप को जिम्मेदार नागरिक बना पा रहे है। हमने अपनी हर समस्या का निपटारा समारोह से करना शुरू कर दिया है। पूरा का पूरा समाज मनी एडिक्ट हो गया है। जो बहुत पैसे वाले है, उन्हें कोई काम नहीं आता, लेकिन फिर भी वे पूजे जाते है और जिनके पास सारे हुनर है- जो खेती किसानी करते है, कारीगरी करते है, बढ़ई का काम करते है उन हुनरमंदों को हम महत्व नहीं देते।

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अनिल त्रिवेदी मानते है कि हिंसा आउटडेटेड हो गई है। कुछ लोगों को खुशफहमी है कि क्रांति बंदूक की गोली से निकलती है। जबकि यह अवैज्ञानिक बात है। नक्सलवाद भी अवैज्ञानिक है और सलवा जुडूम भी। हथियारों की सभ्यता हमें कही नहीं पहुंचाएगी। किसी भी तरह की सिक्योरिटी का कोई मायना नहीं है। हमारे नेताओं को चाहिए कि वे भी बिना सुरक्षा बल के लोगों से आकर मिले। अहिंसा के पुरूषार्थ को कभी खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन यह समाज गोली मारने वाले को ग्लोरिफाई करने लगा है। हजारों लोग सड़कों पर कुचलकर मर जाते है और यह देश आईपीएल के जश्न और सट्टे में डूबा रहता है। हमारी सरकार बंदूक की भाषा समझती है, आंदोलन की भाषा नहीं समझती। सबसे बड़ी बात यह है कि जनता निर्भय और एक होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करें। गांधी, माओ, हो ची मिन्ह और चे ग्वारा ने जनता को जागृत करने का ही काम किया।

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इंदौर के पास कालाकुण्ड में अनिल त्रिवेदी ने प्राकृतिक जीवन केन्द्र बनाया है। यहां वे काफी वक्त बिताते है। बिना गाय-बैल के वे खेती करते है। उनकी जैविक खेती को कई बार कीट और मवेशी खा जाते है। इसे वे बिल्कुल स्वाभाविक बात मानते है। रसायन और फर्टिलाइजर का इस्तेमाल उन्हें हिंसक लगता है। वे किसी को घूरकर देखने को भी हिंसक श्रेणी में पाते है।

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23 साल की उम्र में 1977 की इमरजेंसी में अनिल त्रिवेदी मीसा में जेल जा चुके हैं। गांधीवादी परिवार के है, उनके पिता 1942 में आजादी की लड़ाई में जेल गए थे। अपने सपने के बारे में वे कहते है कि जब मैं पैदा हुआ, तब यह धरती जैसी थी, मैं उससे अच्छी धरती छोड़ कर जाना चाहता हूं।

31 Jan. 2016

04.55 AM

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