चुनाव पूरे देश में होते हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में चुनाव का मजा ही कुछ और है। मध्यप्रदेश में भी मालवा में और खासकर अपने इन्दौर क्षेत्र में तो चुनाव एक तरह से अलग ही तरह का पर्व होता है। पूरी तरह खेल भावना के साथ यह पर्व मनाया जाता है। इन्दौर क्षेत्र में चुनावों के दौरान आम तौर पर हिंसा नहीं होती। बूथ वैâप्चरिंग तो यहां होती ही नहीं है। मारपीट की वारदातें भी गिनीचुनी ही होती है। यहां चुनाव एक पेâस्टिवल की तरह होता है। चुनाव आता है तो सब उसू के रंग में रंग जाते हैं।
यहां चुनाव में उम्मीदवारों के बीच एक तरह से रिश्तेदारी बन जाती है। ऐसे ही स्लोगन बन जाते हैं। जैसे श्रीमती सुमित्रा महाजन जब पहली बार उम्मीदवार बनी थीं, तब उन्होंने अपने विरोधी उम्मीदवार से यह कहा था कि मैं इस शहर की बहू हूं और अब आप मुझे यहां के सारे कामकाज सौंप दीजिए। ठीक वैसे ही, जैसे कि नई बहू के आने पर सास या ससुर घर की तिजोरी की चाबियां उसे सौंप देते हैं और रिटायर हो जाते हैं। ठीक ऐसा ही दावा सुमित्रा महाजन के समर्थकों ने भी किया था।
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के संघवी सुमित्रा महाजन के खिलाफ खड़े हुए थे। उस चुनाव में भी रत्ती भर कटुता कहीं नजर नहीं आई थी। लोगों ने कहा था कि यह तो देवर और भाभी के बीच का संघर्ष है।
इस चुनाव को ही लें। वैâलाश विजयवर्गीय इन्दौर के क्षेत्र व्रंâ. दो से बीजेपी के उम्मीदवार हैं। जब उनकी विरोधी नेता डॉ. रेखा गांधी उसी क्षेत्र से कांग्रेस पार्टी का चुनाव टिकट लेकर इन्दौर आई तब वैâलाश विजयवर्गीय रेल्वे स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए पहुंचे। अपने स्वागत और अगवानी में अपने विरोधी नेता को खड़ा देखकर कौन खुश नहीं होगा? यह एक ऐसा आदर्श उदाहरण है, जो दूसरे उम्मीदवारों को भी अवश्य सीखना चाहिए।
इन्दौर में चुनाव के दौरान हर रोज ऐसे उदाहरण नजर आते हैं जब जनसम्पर्वâ के दौरान एक उम्मीदवार दूसरे उम्मीदवार के मोहल्ले से गुजरता है और अपने विरोधी नेता के घर पर चाय पीने के लिए रूकता है। बिहार में इसका ठीक उल्टा होता है। वहां जब एक उम्मीदवार दूसरे उम्मीदवार के मुहल्ले से गुजरता है तो हथियारों से लैस होता है और मरने-मारने पर उतारू रहता है। ऐसे मौकों पर वहां गाली गलौज होती है। नेता और कार्यकर्ता एक दूसरे के पोस्टर-झंडे-बैनर फाड़ते हैं।
इन्दौर के राजनैतिक परिदृश्य में सबसे दिलचस्प बात है केवल विचारों तक या पार्टी की नीतियों तक की ्सहमति। जब ये नेता पार्टी से अलग निजी कार्यक्रमों में मिलते हैं तब आपस में सगे जैसा बर्ताव करते हैं। इन्दौैर में ही यह संभव है कि जिस नेता को टिकट नहीं मिलता, वह अपने उत्तराधिकारी के पक्ष में काम करने से मना नहीं करता। सेबोटॉज भी होता है, लेकिन असहयोग के रूप में। सही मायनों में यहां लोकतंत्र के लिए चुनाव होता है।
चुनाव आयोग के नए निर्देशों के कारण चुनाव में पोस्टर-बैनर का खर्च सीमित कर दिया गया है, लेकिन इन्दौर के व्यवसायी पोस्टर-बैनर का मौसमी व्यवसाय धड़ल्ले से करते रहते हैं। एक पार्टी का समर्थक यहां दूसरी पार्टी के उम्मीदवारों के पोस्टर-बैनर छापता औैर बेचता नजर आता है। बिजनेस अपनी जगह है, विचारधारा अपनी डगह और व्यक्तिगत रिश्ते अपनी जगह।
यही है इन्दौर में चुनाव लड़ने का स्टाइल।
-प्रकाश हिन्दुस्तानी