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''कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता''
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (23).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
निदा फ़ाज़ली का नाम लेते ही जगजीत सिंह याद आते हैं। जगजीत सिंह ने निदा फ़ाज़ली की बहुतेरी ग़ज़लों को स्वर दिया था, लेकिन ‘आहिस्ता आहिस्ता’ फिल्म (1981) के इस गीत (ग़ज़ल) को भूपेंदर ने गाया था। ग़ज़ल के पहले शेर यानी मतले की पहली लाइन ही अपने आप में मुहावरा बन गई है। जब भी किसी के ख़्वाब की तामीर नहीं होती, तब सांत्वना में कह दिया जाता है - कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ! यानी कोई बात नहीं, हरेक के सपने कहाँ हक़ीक़त में बदलते हैं ?
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली सूरदास, कबीर और गालिब की शायरी से बहुत प्रभावित थे। निदा की शायरी में इन तीनों की ही झलक मिलती है। हाल ही में कहीं पढ़ा था कि निदा फ़ाज़ली ने ग़ज़ल लिखी तो ग़ालिब, नज़्म लिखी तो फैज़ और दोहा लिखा तो कबीर याद आ गए। हर विधा में उन्होंने खूब लिखा। बेख़ौफ़ होकर लिखा।
इस ग़ज़ल में आठ शेर थे, लेकिन फिल्म में चार ही लिए गए थे। ग़ज़ल का हर शेर लाजवाब है। यह तय करना मुश्किल है कि शाही बैत (सर्वश्रेष्ठ शेर) कौन सा है ? निदा साहब की कल्पना देखिये कि यह ग़ज़ल जब लिखी गई थी तब सोशल मीडिया नामक किसी तत्व की कल्पना नहीं थी, लेकिन उन्होंने लिख दिया -
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता
इस शेर को फिल्म में कुछ इस तरह से पेश किया गया था -
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो रील बनाने में बिज़ी है, चाहे कोई देखे या न देखे। फेसबुक पर गुम है। हाँ है तो! अपने आप में। मैं, मैं, और मैं। मेरा परिवार। मेरा पद। मेरा धंधा। मेरे कपड़े। मेरी यात्रा। मेरा खाना। मेरी गाड़ी। मेरा लेखन। मेरा सफर। मेरा लेखन। मेरा गाना-बजाना। मेरी कामयाबियां। मेरा हासिल। करोड़ों लोग मैं मैं कर रहे हैं और कोई किसी को तवज्जो दे नहीं रहा है। इन्तेहाँ तो यह है कि अधिकांश लोग किसी और का शेर चुरा कर या कोटेशन चुरा कर अपने फोटो के साथ चेंप रहा है। भले ही उस फोटो का उस शेर या कोटेशन से कोई सम्बन्ध नहीं हो ! फोटो शॉप हमारी सभ्यता की वह खोज है जो किसी भी स्त्री या पुरुष को बिना मेकअप, बिना पावडर लिपस्टिक के सुन्दर बनाने का पवित्र काम करती है। कई तो मेकअप के बाद भी अपनी तस्वीर के लिए फोटोशॉप को ज़रूरी मानते हैं। ... और अब तो AI भी है।
इस ग़ज़ल में आगे बताया गया है कि समय बड़ा बलवान होता है। अगर कोई सबसे ज्यादा ताकतवर है तो वो है समय। समय जो किसी राजा को भी रंक बना देता है और किसी भिखारी को भी राजा। इसके खेल को कोई आज तक जान नहीं सका है। समय के शोलों को कौन बुझा सका है? उन्होंने लगे हाथ यह भी कह दिया कि ये ऐसी आग है जिसमें धुंआ नहीं होता। किसी का दिल जल रहा हो तो कहाँ धुंआ उठता है? अल्लाह की लाठी किसी को दिखती नहीं है। जो लोग नफ़रत फैलाते हैं उनके लिए भी सन्देश है।
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमे धुआँ नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली बच्चों से ख़ास स्नेह रखते थे। उन्होंने लिखा - घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो, यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये।
उन्होंने तो यह भी लिख दिया था - बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान,
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान !
एक बार जब वे पाकिस्तान गए तो वहां कुछ लोगों ने उनका विरोध यह कहकर किया था कि निदा फ़ाज़ली बच्चों को खुदा से बड़ा समझते हैं। इसके जवाब में निदा फ़ाज़ली ने कहा कि वे बस इतना जानते हैं कि मस्जिद इंसानों के हाथों से बनती है, जबकि बच्चों को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है।
बच्चों से इतनी मोहब्बत रखने के कारण ही उन्होंने ग़ज़ल का मूल शेर यों लिखा था - तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो, जहाँ उम्मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता।
ख़ुलूस का अर्थ है निष्कपट या निश्छल होना, सच्ची दोस्ती, वफादारी, सच्चा लगाव होना। फिल्म में उसमें बदलाव करके इस प्रकार किया गया -तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता।
इस ग़ज़ल के दो शेर और हैं :
कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
और एक शेर है :
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
बीनाई का अर्थ है नज़र या रोशनी। यानी इधर चिराग जले और उधर नज़रों की रोशनी जाने लगी। इससे दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल का शेर याद आ गया - रोशन हुए चिराग़ तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रोशनी का गुमाँ और भी ख़राब !!
कबीर ने कहा था - जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।ओशो ने कहा था : जब प्यार और नफरत दोनों ही ना हो तो हर चीज स्पष्ट हो जाती है।
निदा की फिल्म उद्योग में बहुत इज्जत थी और मंचों पर भी वे छा जाते थे। जब मैं 'धर्मयुग में था, तब उन्हें कई बार सम्पादक धर्मवीर भारती से मुलाकात के लिए आते हुए देखा। बाद में उनसे बातचीत और परिचय भी हुआ। मुझ जैसे नाचीज़ के साथ भी उनका व्यवहार प्रेमपूर्ण था। उनका मानना था कि एक अच्छा इंसान ही अच्छा कलाकार हो सकता है।
निदा फ़ाज़ली ने बुरे दौर में भी इंसानियत को नहीं छोड़ा। वे साम्प्रदायिक और कठमुल्लापन के खिलाफ हर जगह लिखते और खुलकर बोलते थे। जब वे फिल्मों में गाने लिखने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब भी वे चाल में रहने वाले बच्चों के लिए टॉफियां ले जाना नहीं भूलते थे। निदा फ़ाज़ली को बच्चों से बहुत लगाव था। उनका एक शेर इसकी पुष्टि करता है :
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे -
निदा फ़ाज़ली भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में लोकप्रिय थे। उनकी यह ग़ज़ल 'आहिस्ता आहिस्ता' फिल्म में आई थी, 1981 में। पर उसमें उस दौर से भी बीस साल पहले की कहानी थी। आंसुओं से भरी कहानी। फिल्म में शम्मी कपूर, नंदा, कुणाल कपूर, पद्मिनी कोल्हापुरे, शशिकला, आशालता वाबगांवकर और रहमान थे। एक वेश्या और उसकी बेटी की मार्मिक कहानी थी उसमें। यह फिल्म कन्नड़ फिल्म 'गेज्जे पूजे' की रीमेक थी। फिल्म पसंद की गई और उसके गाने भी।
निदा फ़ाज़ली का लिखा पूरा गाना/ ग़ज़ल
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबाँ नहीं मिलता
कभी ...
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमे धुआँ नहीं मिलता
कभी ...
तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता
कभी ...
फिल्म : आहिस्ता आहिस्ता (1981)
संगीतकार : मोहम्मद ज़हूर खय्याम हाशमी
गीतकार : मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली
गायक : भूपेंदर नत्था सिंह और आशा गणपतराव भोसले
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--प्रकाश हिन्दुस्तानी
15 -09-2023
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