चार बुड्ढे हैं, जिनका ताल्लुक कोर्ट से रहा है, शिमला की बर्फीली वादियों के सुनसान इलाके में विलासितापूर्ण तरीके से रहते हैं। ये बुड्ढे न्याय करने के लिए अपने घर में कोर्ट लगाने का खेल खेलते हैं। कोर्ट लगती है। एक खेल के बहाने बर्फीली वादी में फंसे हुए किसी मेहमान पर वे मुकदमा चलाते हैं। कहानी के अनुसार कोई व्यक्ति अगर अपराध करता है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए। वह अपराधी कानून से भले ही बच निकला हो, पर उन लोगों की नकली कोर्ट में असली सजा मिलनी ही चाहिए।
एक हिन्दू बुड्ढा रिटायर्ड जज (धृतिमान चटर्जी), दूसरा मुस्लिम बुड्ढा क्रिमिनल लॉयर (अमिताभ बच्चन), तीसरा रिटायर्ड सिख बुड्ढा एक डिफेंस लॉयर(अन्नू कपूर), एक रिटायर्ड बुड्ढा जल्लाद (रघुवीर यादव)है। हत्या के मामले में सजा काटकर आया गूंगा ईसाई अपराधी (शक्ति कपूर का भाई सिद्धार्थ कपूर) और बलात्कार की शिकार हुई उसकी बहन (रिया चक्रवर्ती) इस घर में सेवा करती है। और एक हीरो इमरान हाशमी है (जिस बेचारे को इस फिल्म में किस करने का कोई मौका नहीं दिया गया है) इमरान की एक गर्लफ्रेंड क्रिस्टल है और वह अपनी गर्लफ्रेंड के साथ मिलकर जो कांड करता है और मुकदमे में फंसता है, उसी की कहानी है।
फिल्म के कुछ डायलॉग हैं :
- आजकल ईमानदार वह है, जिसकी बेईमानी नहीं पकड़ी गई और बेगुनाह वह है जिसका जुर्म सामने नहीं आया।
- हर कोई किसी ने किसी अपराध का बोझ लिए हुए जी रहा है। कोई ऐसा शख्स नहीं है, जिससे कोई अपराध नहीं किया हो।
-अदालतों में फैसला होता है, इंसाफ नहीं !
यह फिल्म अपराध और अपराधी, न्याय और अदालत, वकील और जज के आसपास घूमती रहती है। अपराध से पीड़ित व्यक्तियों और अपराधियों के बीच का अंतर इस फिल्म में दिखाई देता है। इस फिल्म में न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी नहीं बंधी होती है।
इस फिल्म की कहानी स्विस लेखक फ्रेडरिक ड्यूरेनमैट के उपन्यास ए डेंजरस गेम से प्रेरित है।
फिल्म में अंत तक दर्शकों की जिज्ञासा नहीं रहती है और फिर अनपेक्षित नहीं कर अंत हो जाता है। अंत के पहले अमिताभ बच्चन का दस-बारह मिनट का मोनोलॉग दर्शकों को झेलना पड़ता है, जो बेहद बोरियत भरा है।