गत दो सप्ताह से भारतीय राजनायिकों को इस्लामिक देशों से राब्ता बैठाने में भारी परेशानी और चुनौती का सामना करना पड़ रहा हैं। आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआईसी ) के 57 में से 16 देशों ने भाजपा प्रवक्ता के बयान पर बखेड़ा कर दिया था, जिसके बाद भारत को रक्षात्कम पहल करनी पड़ीं। यह भारत के लिए अच्छा अनुभव नहीं रहा। भारत की मुस्लिम आबादी बांग्लादेश और इंडोनेशिया के बाद सबसे ज्यादा हैं। इस हिसाब से भारत इस्लामिक देशों के संगठन में शामिल होने की योग्यता रखता हैं। यह सच्चाई हैं कि ओआईसी की स्थापना में भारत की प्रमुख भूमिका रही हैं। इतना ही नहीं इस संगठन के बनने के बाद पहली बैठक का नेतृत्व भी भारत ने ही किया था। इस्लामिक देशों के संगठन को लेकर शुरू से दो पेंच रहे हैं। पहला तो यह कि इसका सदस्य वही देश हो सकता है, जिसकी आबादी का बहुमत मुस्लिम हो। दूसरी शर्त यह थी कि भले ही मुस्लिम आबादी बहुमत में न हो, लेकिन उस देश का शासक मुसलमान हैं, तो उसे संगठन का सदस्य बनाया जा सकता हैं।
इस्लामिक देशों के संगठन की भूमिका 1969 में बनीं। यरुशलम की अल अक्सा मस्जिद पर 21 अगस्त 1969 को एक ऑस्ट्रेलियाई आतंकी ने हमले की कोशिश की थी, जिसके 3 दिन बाद मिस्र की राजधानी काहिरा में इस्लामिक देशों के प्रतिनिधियों की एक बैठक हुई। इस बैठक में फैसला किया गया कि आतंकी हमलों से निपटने के लिए क्यों न मुस्लिम देश एक मंच पर आएं। उनकी संस्कृति, धर्म और रहन-सहन काफी कुछ मिलता हैं, तो यह सांस्कृतिक एकता इस संगठन की बुनियाद बनीं। इसी विचार को लेकर अल अक्सा मस्जिद पर हमले के दो सप्ताह बाद मोरक्को की राजधानी रबात में एक बैठक हुई, जिसमें दुनियाभर के उन देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था, जहां मुस्लिम आबादी रहती हैं।
स्वतंत्रता के बाद भारत ने धर्मनिरपेक्षता की नीति अपना ली थी और पाकिस्तान ने मुस्लिम धर्म को अपना आधिकारिक धर्म घोषित कर दिया था। बांग्लादेश तब बना नहीं था और पाकिस्तान एक बड़े मुस्लिम देश के रूप में पहचाना जाता था। भारत विभाजन के वक्त मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग पाकिस्तान को प्रमुख इस्लामिक राष्ट्र साबित करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे और पाकिस्तान की कोशिश यही थी कि अगर पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र हैं, तो भारत एक हिन्दू राष्ट्र। 1969 में भारत में जितने मुस्लिम रहते थे, उससे ज्यादा मुस्लिम केवल पाकिस्तान में ही थे। मुस्लिम देशों के अलग-अलग संगठनों की बैठकों में भारत के प्रतिनिधि शिरकत करते थे और भारत को धर्मनिरपेक्ष अथवा प्रमुख मुस्लिम आबादी वाला देश माना जाता था।
जब ओआईसी की पहली बैठक हुई, उसके पहले ही पाकिस्तान के प्रतिनिधि ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि भारत तो हिन्दू राष्ट्र हैं। विभाजन की शर्त यही थी कि एक हिस्सा टूटकर पाकिस्तान बन जाएं। ऐसे में भारत को ओआईसी का सदस्य नहीं बनाना चाहिए। उस वक्त कई मुस्लिम देशों ने पाकिस्तान का साथ दिया और भारत शुरुआती पहल करने के बाद भी ओआईसी का सदस्य नहीं बना।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपनी धर्मनिरपेक्षता की नीति के कारण इस पक्ष में नहीं थे कि भारत किसी ऐसे संगठन का सदस्य बनें, जो किसी खास धर्म या पंथ को लेकर बनाया जा रहा हैं। धीरे-धीरे जवाहर लाल नेहरू को अपनी कूटनीति की चूक का एहसास होने लगा था और भारत ने अपनी कूटनीति में बदलाव कर दिया, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि पाकिस्तान मुस्लिम देशों के नेता के रूप में आगे आएं। मार्च 1965 में बांडुंग में एशियाई इस्लामिक कांफ्रेंस आयोजित की गई थी, जिसमें भारत शामिल हुआ था। बांडुंग सम्मेलन का उद्देश्य यह था कि भारत के खिलाफ पाकिस्तान दुष्प्रचार नहीं कर पाएं। भारत के 5 नेता उस अधिवेशन में थे और उन्होंने भारत की नीतियों का बखान वहां किया था। अप्रैल 1965 में मक्का में मुस्लिम वर्ल्ड लीग की बैठक हुई थी। यह एक गैरसरकारी बैठक थीं, लेकिन भारत ने इस बैठक में भी हिस्सेदारी निभाई थी। मुस्लिम वर्ल्ड लीग की यह बैठक 5 देशों के मुस्लिम संगठनों की पहल पर थी, वहां की सरकार द्वारा नहीं।
26 दिसम्बर 1964 से 5 जनवरी 1965 तक इस्लामिक देशों ने रबात में एक सम्मेलन किया, जिसमें 10 दिनों तक यह चर्चा रहीं कि इस्लामिक देशों का संगठन किस तरह शक्तिशाली बनकर उभर सकता हैं। इसमें भारत भी आमंत्रित था और भारत ने इस अधिवेशन में अपने विचार भी रखे थे।
रबात में सितम्बर 1969 को ओआईसी की बैठक में सभी मुस्लिम देशों ने भारत के प्रतिनिधि को भी बुलाने पर सहमति जता दी थी। उस वक्त अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अब्दुल अलीम मोरक्को में थे, तो उन्हें ही रबात की बैठक में भेज दिया गया। उस बैठक में भारतीय कूटनीतिक गुरबचन सिंह और उनके सचिव इशरत अजीज भी शामिल हुए थे।
रबात की जिस बैठक में भारतीय प्रतिनिधि मंडल शामिल हुआ था, उस प्रतिनिधि मंडल का स्वागत अफगानिस्तान और सूडान के विदेश मंत्रियों ने किया। ईरान के शाह और सऊदी अरब के सुल्तान से उनका परिचय कराया गया। तब पाकिस्तान में याह्या खान फौजी से राष्ट्रपति बने थे। याह्या अपनी भारत विरोधी मानसिकता के लिए कुख्यात थे, लेकिन बैठक में वे एकदम शांत बने रहें। उन दिनों भारत के राष्ट्रपति डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद थे। उन्हें भी इस बैठक में आने के लिए आमंत्रित किया गया। जिस पर पाकिस्तान के एक प्रतिनिधि ने आपत्ति की।
पाकिस्तान की आपत्ति का एक प्रमुख कारण तो यह था कि गुजरात के अहमदाबाद और निकटवर्ती इलाकों में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे। उन दंगों को लेकर पाकिस्तान के प्रतिनिधि ने न केवल गलत बयानी की, बल्कि याह्या खान ने कई मुस्लिम देशों के राष्ट्राध्यक्ष को फोन करके अपनी नाराजगी प्रकट की। याह्या खान को मनाने के लिए ईरान और सऊदी अरब के राष्ट्राध्यक्ष भी गए, लेकिन याह्या उनसे नहीं मिले। याह्या खान ने सम्मेलन के प्रतिनिधियों के सामने कहा कि अगर भारत के राष्ट्रपति इस सम्मेलन में आएंगे, तो हम यानी पाकिस्तान इसका बहिष्कार करेगा।
बड़ी विचित्र सी स्थिति हो गई, क्योंकि भारतीय राष्ट्रपति डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद रबात पहुंच चुके थे, उनका राजकीय सम्मान किया गया। सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते मोरक्को के किंग हसन ने भारतीय राष्ट्रपति से फोन पर बातचीत की और बताया कि कुछ मुस्लिम देश भारत में हो रहे दंगों को लेकर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि अगर भारत इस बैठक में सदस्य के तौर पर नहीं, बल्कि दर्शक के तौर पर उपस्थित होता हैं, तो शामिल हो सकता हैं। भारतीय राष्ट्रपति ने साफ मना कर दिया कि हम ऑब्जर्वर के रूप में बैठक में नहीं आएंगे। बैठक के पहले ही हंगामा हो गया। अफगानिस्तान, मलेशिया और नाइजर के राष्ट्र अध्यक्ष भारतीय राष्ट्रपति से मिलने आए और उन्हें मनाने की कोशिश कीं। यह भी बताया गया कि भारतीय प्रतिनिधि मंडल के प्रमुख के तौर पर कूटनीतिज्ञ गुरबचन सिंह को भेजा गया हैं, वह उचित नहीं हैं, क्योंकि गुरबचन सिंह सिख हैं।
याह्या खान को भारत से उतनी आपत्ति शायद नहीं होती, लेकिन मुस्लिम देशों के संगठन की बैठक में भारतीय राष्ट्रपति को ऑफिशियल इन्वीटेशन दिए जाने के मुद्दे पर पाकिस्तान में राजनीति गर्म हो गई। याह्या खान के खिलाफ जबरदस्त विरोध शुरू हो गया। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जैसे नेता याह्या के विरोधी थे। भुट्टो ने बयानबाजी शुरू कर दीं और आंदोलन का ऐलान कर दिया। इससे याह्या खान को अपनी कुर्सी असुरक्षित नजर आईं। यह भी कहा जाता है कि याह्या खान को पहले तो भारत से कोई शिकायत नहीं थी, लेकिन रात में उनसे मिलने पाकिस्तान के 3 पत्रकार गए थे, उन्होंने ही याह्या खान का ब्रेन वॉश कर दिया।
भारत के रवैये के कारण अगले दिन मुस्लिम देशों के संगठन की कोई बैठक नहीं हो पाई। दो दिन बाद भारतीय प्रतिनिधियों की गैरमौजूदगी में ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन के गठन का प्रस्ताव रखा गया। भारत के लिए यह पहला मौका था, जब वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी बैठक में शामिल होने के लिए गया था और भारतीय प्रतिनिधि मंडल पूरी तरह वहां का सरकारी मेहमान भी था, लेकिन उसने बैठक में हिस्सा नहीं लिया। पाकिस्तान की एक आपत्ति यह भी थी कि सोवियत संघ और चीन में भी तो बड़ी संख्या में मुसलमान रहते थे, वहां के प्रतिनिधियों को क्यों नहीं बुलाया गया और भारत को ही क्यों बुलाया गया? इस्लामिक देशों के संगठन की पहली बैठक में धर्म की कोई बात नहीं की गई। सामान्य राजनीतिक चर्चाएं ही हुई।
यह भारतीय कूटनीति की उपलब्धि ही कहीं जाएगी कि जल्द ही भारत इस दुविधा से उबर गया। एशिया के अन्य मुस्लिम राष्ट्रों से भारत का संबंध स्वाभाविक रूप से मजबूत हुआ। कारोबार में एशियाई मुस्लिम देश भारत के प्रमुख साझेदार बनें। पाकिस्तान को यह बात लगातार चुभती रहीं। ऐसे कई मौके आएं, जब पाकिस्तान ने मुस्लिम देशों के संगठन को भारत के खिलाफ उपयोग में लाने की कोशिश की, लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली। ओआईसी का दावा है कि वह संयुक्त राष्ट्र के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय संगठन हैं, जिसके सदस्यों की संख्या 57 हैं। यह संगठन इस्लामिक देशों के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ाने का कार्य करता हैं और वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों का आदान-प्रदान भी करता हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहते हुए इमरान खान बर्बादी की हालत में इसी संगठन के सामने मदद की गुहार लगाते रहें और इस्लामिक देश भी पाकिस्तान की रक्षा में आगे आए। अब इस्लामिक देशों का संगठन भारत में हो रही धर्म संसद हिजाब विवाद और मोहम्मद साहब के बारे में कुछ निजी लोगों की टिप्पणी को लेकर आंदोलित हैं। अचरज की बात यह है कि यह संगठन चीन के उईगर मुसलमानों की दुर्दशा पर कभी कुछ नहीं कहता। यह भारतीय कूटनीति की मजबूरी रही कि कई बार उसे बचाव की मुद्रा में आना पड़ा।