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 (मैं न तो 'बुद्धिजीवी' हूँ और न 'भक्त।'  मुझे न तो 'जुमले' आते हैं और न ही 'आरती।'  इन दो प्रजातियों के अलावा भी भारत में लोग हैं जो न तो गिरोहों के साथ हैं, न ही पंथ विशेष के साथ !)

मुझे जेएनयू मामले में कहना है कि हाँ, जेएनयू मामले में राजनीति हो रही है। होगी ही। यह मामला यह मामला इतना बड़ा है कि आगामी चुनाव में यह सरकार बनाने-बिगाड़ने का काम कर सकता है ! इसमें बीजेपी चारो कोने चित्त हो सकती है या उसके बल्ले बल्ले भी हो सकते हैं. जेएनयू की चिंगारियां राख के ढेर में दबी रहेंगी और चुनाव के वक़्त फिर धधकेंगी ही। इस मामले में राजनीति तो होनी ही है। इतनी नाजुक नस को दबाने वाले गुट का दांव बहुत ही सोचा समझा था। इसके पीछे कौन हैं, असली इरादा क्या रहा होगा; इस पर बहुत बयानबाजी हो चुकी है। मैं अभी इस पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ। मैं इस प्रकरण में होनेवाली राजनीति की बात कर रहा हूँ। वोट की राजनीति की। हम लोकतंत्र हैं और वोट की राजनीति ही हमारे देश में लोकतंत्र को संचालित करती है।

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यह कहना कि सभी जेएनयू वाले एंटी नेशनल हैं, अहमकाना बात ही होगी। सोच समझकर कुटिलतापूर्वक या नादानी में एक राजनैतिक गतिविधि हुई, जिसके कारण मामला तूल पकड़ता गया। मामला और भी संगीन होता जा रहा है और अपशब्द भी सीमा से ज्यादा उपयोग में लाये जा रहे हैं। पूरा देश ही दो हिस्सों में बंट गया लगता है -- जेएनयू समर्थक और जेएनयू विरोधी। जो लोग जेएनयू के समर्थक हैं वे समझते हैं कि वे और केवल वे ही प्रगतिशील, क्रांतिकारी तथा आधुनिक सोच के हैं; जो लोग उनके साथ नहीं हैं -- वे सब के सब आरएसएस के कार्यकर्त्ता हैं, ब्राह्मणवादी और 'भक्त' हैं! दूसरा वर्ग यह सोच रहा है कि जो भी जेएनयू समर्थक या सहयोगी है-- वह देश विरोधी है। न जानें किन-किन कब्रों से निकलकर प्रगतिशील लोग आ रहे हैं और न जाने कितने गलियारे लांघकर 'देशभक्तों' का हुजूम मैदान में है।

इस वर्ष के मध्य तक पुडुचेरी, असम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केरल तथा आगामी मार्च 2017 तक उत्तरप्रदेश विधानसभाओं का कार्यकाल समाप्त हो जाएगा ये राज्य लोकसभा की 196 सीटों की हिस्सेदारी रखते हैं, इसलिए इनके चुनाव दिल्ली की आगामी सरकार के गठन में निर्णायक होंगे। चुनाव को देखते हुए ही प्रमुख राजनैतिक दल इस मुद्दे को लेकर मैदान में हैं। बौद्धिक रूप से बीजेपी यहाँ मीडिया के सामने कमज़ोर नज़र आ रही है। मीडिया में बीजेपी के लोग काम ही हैं, और जो हैं वे इतने मुखर नहीं, जितने उसके विरोधी हैं।

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जरा पीछे मुड़कर देखिए। 2014 का लोकसभा चुनाव 3 मुद्दों पर लड़ा गया था -- भ्रष्टाचार, बुरी आर्थिक हालत और महंगाई। लेकिन बीजेपी जीती थी वोटों के ध्रुवीकरण के कारण। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव ने भी यही साबित किया कि जब भी, कहीं भी, कभी भी वोटों का ध्रुवीकरण हो तो नतीजे चमत्कारी होते हैं। अगर कोई यह सोचे कि नरेंद्र मोदी के डेवलमेंट के एजेंडा के कारण उसे लोक सभा में 543 में से 282 (और उत्तरप्रदेश की 80 में से 71) सीटें मिली थीं; तो यह नादानी ही कही जा सकती है। इसी तरह बिहार विधानसभा में 243 में से 178 सीटों पर नीतीश कुमार का 'विकास का एजेंडा' नहीं; नीतीश और लालू यादव का गठबंधन, यूपीए गठबंधन की कमजोरी और आरक्षण के बारे में संघ प्रमुख का बयान निर्णायक रहा। चुनाव में वोटों का ध्रुवीकरण किये बिना बम्फर जीत नहीं मिलती।

जेएनयू प्रकरण के बारे में क्रमिक विकास देखिए। राहुल गांधी का जेएनयू जाना और सभा लेना, गृहमंत्री राजनाथ सिंह का हाफ़िज़ सईद वाला बयान, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का तीखा बयान, बीजेपी विधायक द्वारा कोर्ट में की गई मारपीट और बाद में यह बयान देना कि "मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं है", क्या इशारे कर रहा है? लेकिन बीजेपी ने जेएनयू का विवाद अगर वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब हुआ तो बीजेपी फिर से धोबीपछाड़ का दांव खेल सकती है।

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राजनीति में कई बार पांसे उल्टे दिखाई देते हैं। याद कीजिये 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव की उस रैली को; जिसमें कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जोरदार भाषण किया था --''ये मौत के सौदागर" शब्द इस्तेमाल किये थे उन्होंने। तमाम न्यूज़ चैनल्स ने उस भाषण को लाइव दिखाया था -- लगा था कि यह डॉयलॉग तो खेल के नतीजे बदल देगा। नतीजा यह निकला कि 182 सीटों में से 117 नरेन्द्र मोदी की बीजेपी को मिलीं और कांग्रेस 57 पर सिमट गई।

अब जेएनयू प्रकरण के बाद चुनाव अगर देशभक्त और देशद्रोही के मुद्दे पर लड़े जाएंगे, अफ़ज़ल और याक़ूब के समर्थकों और आरएसएस के विषय पर होंगे, पैरासाइट (परजीवी कीड़ों) और मधुमक्खियों के बीच लड़े जाएंगे तो वोटों का ध्रुवीकरण होगा ही। अगर ऐसा हुआ तो बाजी किसके हाथ होगी?

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