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पत्रकार और लेखक दीपक तिवारी 26 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं। आकाशवाणी, समाचार एजेंसी, अखबार आदि के बाद वे अंग्रेजी समाचार साप्ताहिक द विक में 20 साल से मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के राज्य संवाददाता हैं। मध्यप्रदेश की राजनीति पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है। पिछले दिनों बहचर्चित किताब ‘राजनीतिनामा मध्यप्रदेश (2003 से 2018) भाजपा युग’ का लोकार्पण हुआ। इसके पहले वे ‘राजनीतिनामा मध्यप्रदेश (1956 से 2003) कांग्रेस युग’ लिख चुके हैं। इस तरह उन्होंने 1956 में मध्यप्रदेश बनने के बाद की राजनीति को कांग्रेस युग और भाजपा युग में लिपिबद्ध किया है।

मध्यप्रदेश में राजनीति पर काफी किताबें लिखी जाती रही है। इनमें से बहुत सी किताबें प्रायोजित भी होती है। तारीफ करनी होगी दीपक तिवारी की कि उन्होंने दोनों ही किताबों में पत्रकारिता और राजनीति के विद्यार्थियों के लिए दिलचस्प और पठनीय सामग्री उपलब्ध कराई है।

करीब 395 पेज में कांग्रेस के 47 साल का लेखा-जोखा पेश करना कोई आसान बात नहीं थी। अनेक संदर्भ ग्रंथों को पढ़ते हुए उन्होंने मध्यप्रदेश की राजनीति में कांग्रेस युग और तीन राष्ट्रपति शासनकाल की अवधि का दिलचस्प विवरण लिखा है। इसमें जनसंघ, अर्जुन सिंह, भारतीय जनता पार्टी, संविद सरकार, प्रकाशचन्द्र सेठी का दौर, मध्यप्रदेश की दलित चेतना, छत्तीसगढ़ राज्य का उदय और दिग्विजय सिंह के दस साल का लेखा-जोखा किस्सा गोई शैली में प्रस्तुत किया है।

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दोनों ही पुस्तकें इतनी दिलचस्प है कि एक बार में खत्म करने की इच्छा होती है। पुस्तकों के आकार को देखते हुए यह बात असंभव लगती है, लेकिन जिस तरह से किताबें पेश की गई है, वह दिलचस्प तरीका है। छोटे-छोटे किस्से है और आप उन्हें कहीं से भी शुरू कर सकते हैं और कही भी खत्म कर सकते हैं। अगली बार जब फुर्सत मिले, तब फिर आप नया अध्याय शुरू कर सकते हैं। दोनों ही पुस्तकों में उपशीर्षक दिए हुए हैं। इससे पठनीयता बढ़ गई है।

दोनों किताबों में नेताओं के इतने दिलचस्प किस्से हैं, जिन्हें पढ़कर न केवल मनोरंजन होता है, बल्कि मध्यप्रदेश के बारे में गर्व की भावना भी मन में आती है। अधिकांश लोगों को यह बात पता नहीं होगी कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे द्वारकाप्रसाद मिश्र की क्या भूमिका थी। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे आरसीपीवी नरोन्हा के किस्से भी किताब में मिल जाएंगे। ऐसे किस्से भी आपको पढ़ने को मिलेंगे, जब नेताओं ने अपने छोटे-छोटे से अहंकार के लिए सरकारें बदलवाना पसंद किया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू मध्यप्रदेश के मूल निवासी नहीं थे, यह बात कितने लोगों को पता होगी? ग्वालियर अटल बिहारी वाजपेयी का गृह नगर है, लेकिन उसी ग्वालियर में अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा का चुनाव हार चुके हैं। जो सुंदरलाल पटवा अपने भतीजे को मंत्री बनवाने के लिए बार-बार अड़ जाते है, वे खुद कभी चुनाव नहीं लड़ना चाहते। मनासा से उन्होंने पहली बार चुनाव लड़ा था। कुशाभाऊ ठाकरे ने उन्हें डमी उम्मीदवार के रूप में पेश किया था, लेकिन जब वे अपना नाम वापस लेना चाहते थे, तब नहीं लेने दिया गया। गुटबाजी के चलते सितासरण शर्मा को टिकिट नहीं दिया जाना था, लेकिन फिर भी उन्होंने अपना टिकिट प्राप्त कर लिया। पटवा के ही शासनकाल में महिला बाल विकास विभाग के तत्कालिन कमिश्नर पी.राघवन को भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने पीट दिया था। बाबूलाल गौर का संघर्ष कितना पुराना है और शराब के ठेकेदारों से उनके संबंध कैसे रहे है यह बात भी दीपक तिवारी ने बहुत सरलता से बताई है।

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मध्यप्रदेश की राजनीति में होने वाले तमाम छोटे-बड़े घोटालों का जिक्र भी इन किताबों में है। दीपक तिवारी ने किसी को भी बक्शा नहीं है, लेकिन किस्से इस तरह से लिखे हैं कि हर बात उजागर कर ही दी। इनमें शिवराज सिंह के जमाने के डम्पर, व्यापमं और अन्य घोटाले भी है। भागीरथ प्रसाद कैसे रातों-रात कांग्रेसी से भाजपाई हो गए और कांग्रेस नेता संजय पाठक का डीएनए कैसे रातों-रात बदल गया ये जानकारी भी दिलचस्प तरीके से लिखी गई है। ऐसा नहीं है कि इन दोनों किताबों में कांग्रेस की गड़बड़ियां, कमजोरियां, मूर्खताएं, लाचारियां, स्वार्थ आदि नहीं है। एक-एक मुद्दे पर बारिकी से लिखा गया है।

दीपक तिवारी जी ने बताया कि इन किताबों को लिखने के लिए उन्होंने अखबारों के पन्ने दर पन्ने और विधानसभा की लाइब्रेरी की जमकर खाक छानी है। उनका अपना तर्जुबा और दृष्टि भी है ही। पत्रकारिता और राजनीति के विद्यार्थियों के लिए तो ये किताबें आनुषंगिक हैं ही, मध्यप्रदेश से जुड़े प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति के लिए भी अनिवार्य है ही।

पत्रकार दीपक तिवारी से रश्क होता है कि उन्होंने इतना सार्थक काम कर दिखाया। दोनों ही किताबें इन्द्र पब्लिशिंग हाउस भोपाल ने
प्रकाशित की है। कांग्रेस युग की कीमत 495 रूपए है और भाजपा युग की 595 रूपए। पुस्तकों के आकार और सामग्री को देखते हुए पुस्तकों की कीमतें वाजिब हैं।

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