श्रवण गर्ग ने हिन्दी पत्रकारिता में दो योगदान दिए हैं। पहला तो उन्होंने सम्पादक नामक प्रजाति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दूसरा इस प्रजाति की कार्यशैली में आमूलचूल परिवर्तन की व्यवस्था की। अखबार के सम्पादक को उन्होेंने लाइब्रेरी से बाहर निकालकर न्यूज डेस्क की मैनस्ट्रीम में पहुंचाया और उसका दायरा अग्रलेख और सम्पादकीय पेज से बाहर पैâलाया। आज यदि हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार मध्यप्रदेश के बाहर पूरे देश में हो रहा है, तो इसके पीछे श्रवण गर्ग की मेहनत भी छिपी है। श्रवण गर्ग ने पत्रकारिता में हैँण्ड कम्पोजिंग से लेकर कम्प्यूटर नेटवर्विंâग तक के दौर में काम किया है।
करीब ४० साल के पत्रकारीय जीवन में उन्होेंने चार साल गुजराती पत्रकारिता को और करीब १३ साल अंग्रेजी पत्रकारिता को समर्पित किए हैं। उनका अधिकांश पत्रकारीय जीवन हिन्दी जगत में ही बीता है। वे जयप्रकाश नारायण के सानिध्य में १९७२ से १९७७ तक रहे। १९७४ में वे बिहार में करीब सालभर जयप्रकाश नारायण के साथ रहे। १९७५ में उनकी किताब ‘बिहार आन्दोलन- एक सिंहावलोकन’ प्रकाशित हुई। उन्होंने चंबल के बिहड़ोें की खाक छानी है और १९७२ में जब दस्युओं ने आत्मसमर्पण किया था, तब वे उसके गवाह रहे। प्रभाष जोशी के साथ वे ‘चंबल की बंदूवेंâ, गांधी के चरणों में’ पुस्तक के वे सह लेखक रहे। उन्होंने विभिन्न अखबारों में विभिन्न पदों पर काम किया। सर्वसेवा संघ नामक हिन्दी साप्ताहिक से शुरू हुआ, उनका पत्रकारीय सफर सर्वोदय प्रजानीति आसपास फायनेंशियल एक्सप्रेस, नईदुनिया, प्रâी प्रेस जनरल, एमपी क्रॉनिकल, शनिवार दर्पण, दैनिक भास्कर, दिव्य भास्कर और फिर नईदुनिया के प्रधान सम्पादक पद तक पहुंचा। १९६३ में उनका सम्पादित किया हुआ काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ, अखबारी लेखन के अलावा उन्होंने कहानियां, कविताएं और यात्रा वृतांत लिखे हैं।१४ मई १९४७ को जन्मे श्रवण गर्ग ने दुनिया के कई देशों में उन्होंने यात्राएं की। श्रवण गर्ग का परिवार राजस्थान से आकर इंदौर में बस गया था और इंदौर में वे वेद प्रताप वैदिक के पड़ोसी थे। शुरुआती पढ़ाई इंदौर में करने के बाद श्रवण गर्ग ने इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा हासिल किया, उसके बाद ग्रेजुएशन किया। दिल्ली जाने के बाद भारतीय विद्या भवन से उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की और अंग्रेजी पत्रकारिता के कोर्स भी किए और फिर नई दुनिया इंदौर में सम्पादकीय विभाग में कार्य करने लगे। नई दुनिया में रहते हुए उनका चयन इंग्लैंड के थॉमसन फाउंडेशन में तीन महीने के एक पाठ्यक्रम के लिए हुआ।
श्रवण गर्ग ने विनोबा भावे के आंदोलन को भी करीब से देखा। जयप्रकाश नारायण के पास उन्हें देश में अनेक जगह जाने का मौका मिला। श्रवण गर्ग मानते हैं कि विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण का सानिध्य उनकी सबसे बड़ी पूंजी है, सबसे बड़ा सुख है, सबसे बड़ी ताकत। उन्हें लगता है कि अगर वे पत्रकारिता में ईमानदारी के साथ बने हुए हैं और निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं, तो यह विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के पारस स्पर्श के कारण ही हुआ है।
श्रवण गर्ग इंदौर में प्रâी प्रेस में कार्य करते थे। उन्हें तीन साल ही हुए थे कि किसी गलत फहमी के कारण मैनेजमेंट ने सजा के तौर पर उनका भोपाल ट्रांसफर कर दिया। वे तुरंत भोपाल गए और अपने परिवार को भी साथ ले गए। अगले ही दिन उन्होंने प्रâी प्रेस छोड़ दिया और एमपी क्रॉनिकल अखबार में काम शुरू कर दिया। तीन साल के भीतर उन्होंने एमपी क्रॉनिकल को नई ऊंचाइयां दी। प्रâी प्रेस वालों को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने फिर से श्रवण गर्ग से सम्पर्वâ करके प्रâी प्रेस का सम्पादक बनाया। दो साल तक वे प्रâी प्रेस में काम करते रहे इसके बाद फिर प्रâी प्रेस के प्रबंधन ने कहा कि आपकी और हमारी बनती नहीं है, आप प्रâी प्रेस छोड़ दीजिए। श्रवण गर्ग नौकरी छोड़ दी। उसके बाद काफी संघर्षपूर्ण दौर रहा, लेकिन श्रवण गर्ग परेशान नहीं हुए। उनका मानना है कि पत्रकारिता में व्यक्ति को हर चीज के लिए तैयार रहना चाहिए। श्रवण गर्ग अपने जीवन में विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के अलावा अटलबिहारी वाजपेयी और डॉ. राम मनोहर लोहिया से बहुत प्रभावित रहे। प्रभाष जोशी के साथ उन्होंने कई साल काम किया, लेकिन वे ज्यादा प्रभावित राजेन्द्र माथुर से हुए। श्रवण गर्ग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि ईमानदारी से कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। उनका मानना है कि ईमानदारी से आप सबकुछ एचीव कर सकते हैं। यह बात और है कि आपके लिए एचीवमेंंट के मायने क्या है?
श्रवण गर्ग ने अन्तरजातीय विवाह किया। बहुत सादगी से यह विवाह हुआ। शराब और मांसाहार से दूर रहने वाले श्रवण गर्ग अपने जीवन में रिटायरमेंट के बारे में कभी नहीं सोचते। भगवान पर भरोसा करने वाले श्रवण गर्ग को लगता है कि राहुल गांधी मूलत: एक ईमानदार नेता हैं। उन्होेंने अपने आसपास खड़ा किया है और वे जिन लोगों को प्रमोट कर रहे हैं वे भी काफी ईमानदार हैं। श्रवण गर्ग की राय में यह उम्मीद जगाने वाली बात है। संगीत और फिल्मों के शौकीन, पर्यटन और फोटोग्राफी का शौक रखने वाले श्रवण गर्ग के प्रिय अभिनेता देव आनंद और अभिनेत्री नूतन रहे हैं। कहानियां और कविताएं लिखना उन्हें सुवूâन देता है।
श्री गर्ग के सम्पादक बनने से एक अच्छे रिपोर्टर की जगह खाली हो गई थी, जो अभी तक खाली ही है। श्री गर्ग की मूलवृत्ति रिपोर्टर की है और वे रिपोर्टिंग से ही पत्रकारिता शुरू करके शिखर तक पहुंचने वाले पत्रकार हैं। इस लम्बे सफर में उन्होंने कई पड़ाव हासिल किए हैं, लेकिन अपनी मंजिल उन्होंने खुद तय की है। खांटी किस्म के, मेहनती, पढ़ने-समझने-बूझने वाले, सर्वोदयी किस्म के श्री गर्ग के व्यवहार से कई लोग उनके दुश्मन बन गए हैं। इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने श्री गर्ग की तरह ऊंचाइयों को नही छुआ है और वे उनसे जलन रखते हैं, लेकिन श्री गर्ग को किसी से कोई बैर नहीं।
श्री गर्ग ने हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी और अब फिर हिन्दी पत्रकारिता में झंडे गाड़े हैं। कई बार तो वे अपने संस्थान के लिए इस तरह कार्य में जुटे मिलते हैं, जैसे कोई परमाणु बिजली घर संचालित होता है। न शोर, न धूल, न धुआं। वे सम्पादकीय पेज के लेखों, सम्पादकीय और खबरों में भी नजर आते हैं। बहुत कम लोग हैं, जो अखबार देखकर ही भांप जाते हैं कि इसके पीछे किसका दिमाग होगा। श्री गर्ग एक प्रोपेâशनल हैं और सच्चे प्रोपेâशनल की तरह अपने काम में जुटे रहते हैं। उनके सहयोगी उनमें एक कुशल प्रबंधक और निष्पक्ष अधिकारी भी पाते हैं। वे ऐसे विरले ही सम्पादक हैं, जो बेहद प्रभावी और परिणाम देने वाले प्रबंधक भी हैं। वे एक सम्पादक और प्रबंधक की भूमिका में विरोधाभास पाते हैं और इसलिए उनके मतभेद लोगों से होते रहते हैं। खबरों के चयन को लेकर उनकी प्राथमिकताएं स्पष्ट है। वे लोगों की तरफ हैं। उन्हें विज्ञापनदाताओं की खबरों से ज्यादा पाठकों की खबरों की होती है, लेकिन विज्ञापनदाता भी नजरअंदाज नहीं होता।
शौकिया फोटोग्राफर और कवि किस्म के लोग अगर पत्रकार बने तो कामयाबी की आशा कम होती है, लेकिन इसका अपवाद हैं श्री गर्ग। यही उनकी खूबी है कि जब भी कोई प्रोपेâशनल मुद्दा सामने आता है, तो वे सच्चाई की तरफ होते हैं। वे ऐसे मौके पर अपने सारे पूर्वाग्रह पत्रकारिता के लिए सामने आ जाते हैं।
श्रवण गर्ग अखबार में लेख लिखने के साथ ही अपने ब्लॉग और अपनी वेबसाइट पर भी नियमित लिखते रहे। अनेक लेखों में सही और तीखे विश्लेषण के साथ-साथ हालात का जायजा लिया जाता है। यह लेख २६ जुलाई २०१३ को प्रकाशित हुआ था, जिसमें पूâड सिक्योरिटी के मुद्दे पर चर्चा की गई है :
‘‘कांग्रेस ने अगर अपने बड़बोले नेताओं के ‘जुबानी डायरिया’ का वक्त रहते डॉक्टरी इलाज नहीं किया तो चुनावों के बाद इस देशव्यापी पार्टी की एक बड़ी जमात को पांच सितारा आरामगाहों से बेदखल होकर पांच और बारह रुपए के भोजन के उन ठिकानों की तलाश करना पड़ेगी जिनके कि पतों को वे आज हवा में उछाल भी रहे हैं और ऊपर से मुंहजोरी भी कर रहे हैं। कांग्रेस आलाकमान की दिक्कतें केवल नरेन्द्र मोदी तक ही सीमित नहीं हैं। इस समय राजनीतिक ‘नागा नेताओं’ का एक ‘कुंभ’ मचा हुआ है जो गरीबी और गरीबों से लेकर हर उस शख्स और शख्सियत का मजाक उड़ाने पर आमादा है, जो फिर से सरकार बनाने के उनकी हसरतों का विरोध कर सकता है। मजा यह है कि पांच और बारह रुपए की बहस गरीबों को निवाला उपलब्ध कराने के हक में उसी सरकार के नुमाइंदे चला रहे हैं जो कि भ्रष्टाचार के आरोपों के गर्त में आकंठ डूबी है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसे भी गठबंधन की मजबूरी करार दे सकते हैं कि भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते केवल सहयोगी दलों को ही या तो सरकार से बाहर निकलने के लिए बाध्य होना पड़ता है या उनके ही प्रतिनिधि मंत्रियों को ही जेलों की हवा खानी पड़ती है, कांग्रेस के रसूखदारों के पैरों तले का तो सूखा पत्ता भी आवाज नहीं कर पाता है।
बहस असल में पांच या बारह की नहीं है और न ही इस बात को लेकर है कि पेट कितने रुपए में भर सकता है। गरीब आदमी ने तो अब भूखे रहकर भी योगनिद्रा का अभ्यास साध लिया है। वास्तव में तो आम मतदाता की चिंता का विषय यह बनता जा है कि मुंह से बेलगाम ये तमाम विचारक मोदी की टक्कर में ज्यादा खतरनाक तरीके से राजनीतिक वातावरण का धु्रवीकरण कर रहे हैं और इसके कारण देश में कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है। सड़कों के गड्ढ़ों को खाइयों में बदला जा रहा है। इस तरह से पुलों और व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने का काम तो केवल पराजय के भय से मैदान छोड़कर भागती हुई सेनाएं ही करती हैं।
मुंबई के शेयर बाजार के ‘लो’ और ‘हाई’ के बारे में ही अभी तक चर्चाएं चलती रही हैं। हम इस समय राजनीति के ‘लो’ से मुखातिब हैं। कांग्रेस के ‘लो’ का मुकाबला विपक्षी दल भी उतनी ही मुस्तैदी से करने पर आमादा हैं। प्रख्यात अर्थशास्त्री और नोबल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन पर भाजपा के एक प्रवक्ता चंदन मित्रा द्वारा किया गया आक्रमण इसका एक नमूना है। हालांकि भाजपा ने चंदन मित्रा की टिप्पणी से अपने को अलग कर लिया है पर इससे देश के निर्दलीय नागरिक की यह चिंता कम नहीं होती कि जो राजनीतिक दल देश को कांग्रेस से मुक्त करना चाह रहे हैं उनके दिमागों में किस तरह की शरारतें आकार ले रही हैं। अत: केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में दलीय राजनीति के इलाकों में किस तरह की वैचारिक हिंसा लोगों की जिंदगियों में अवैध अतिक्रमण करने वाली है। ज्यादा शर्म की बात तो यह है कि पांच और बारह रुपए में भोजन पर बयानबाजी करने वाली इन अनियंत्रित राजनीतिक आत्माओं को इस बात का कोई गम नहीं है कि सरकारों की ओर से मुफ्त बांटे जाने वाले ‘मिड-डे मील’ के जहरीले हो जाने के कारण चौबीस बच्चों की मौत हो गई।