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प्रिंट और टीवी मीडिया जिन प्रमुख बातों को लगभग भुला देता है, सोशल मीडिया उन्हें वापस जीवंत कर देता है। 28 सितंबर 1991 को श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी की हत्या हुई थी। सोशल मीडिया पर अनेक लोगों ने उस हत्या को 25 साल पहले हुई शहादत करार देते हुए श्रद्धांजलि दी। इन 25 साल में श्रमिक आंदोलनों की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है और एक ऐसी पीढ़ी भी मौजूद है, जिसमें शंकर गुहा नियोगी का कभी नाम भी नहीं सुना होगा। इन 25 सालों में छत्तीसगढ़ का श्रमिक आंदोलन भी पूरी तरह बदल चुका है या यूं कहे कि लगभग तहस-नहस हो चुका है, तब भी कोई अजरज नहीं होगा।

25 साल पहले छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का ही एक हिस्सा था। छत्तीसगढ़ की खदानों के क्षेत्र में श्रम आंदोलन जोर-शोर से चल रहा था। इस आंदोलन के हिंसक होने की खबरें भी आती रहती थी। शंकर गुहा नियोगी को अनेक लोग उग्र श्रमिक नेता के रूप में पहचानते हैं। वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी रामलाल सिंह यादव ने अपनी किताब ‘पवित्राणाय साधूनां’ में शंकर गुहा नियोगी के बारे में अनेक ऐसी बातें भी लिखी थी, जो किसी और ने नहीं लिखी। श्री यादव के अनुसार नियोगी आंदोलनों को हिंसक रूप देने में माहिर थे और उस हिंसा में हुए पुलिस बल से हताहत मजदूरों की बात करके वे राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार पा जाते थे। इससे उनकी छवि क्रांतिकारी श्रमिक नेता की बनने लगी थी। जबकि वे बड़े औद्योगिक घरानों से सीधे टकराव में बचते थे।


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सोशल मीडिया को शंकर गुहा नियोगी को याद करने वालों में उन्हें इस बात का श्रेय दिया कि वे असंगठित क्षेत्र में मजदूरों को संगठित कर रहे थे। 1977 से उनका यह आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा था। वे केवल हड़ताल तक सीमित नहीं थे, बल्कि सामाजिक कार्यों की वजह से भी उनके आंदोलन का महत्व बढ़ गया था। मूल रूप से पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी के रहने वाले नियोगी ने 1970 के दशक में छत्तीसगढ़ में आकर काम करना शुरू किया था। भिलाई स्टील प्लांट में वे एक मजदूर की तरह भर्ती हुए थे। उनका असली नाम धीरेश था। भिलाई स्टील प्लांट में काम करने के दौरान ही उन्होंने मजदूरों को संगठित करना शुरू किया और स्टील प्लांट में हड़ताल करवा दी। मजदूरों के आगे मैनेजमेंट को झुकना पड़ा।

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शंकर गुहा नियोगी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया। कुछ समय बाद वे फिर भिलाई आ गए और अपना नाम धीरेश से बदलकर शंकर रख लिया और भिलाई के दानी टोला में चूना पत्थर खदान में मजदूर की तरह काम करने लगे। यहां भी वे जल्दी ही लोकप्रिय हो गए। 1970 के आसपास इलाके के मजदूरों से 14-16 घंटे तक काम लिया जाता था और मजदूरी मिलती थी दो रुपए रोज। शंकर गुहा नियोगी ने 1977 में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ बनाया। दो महीने में ही दस हजार से ज्यादा मजदूर इस संगठन से जुड़ चुके थे। शंकर गुहा नियोगी ने श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा और नशाबंदी को अपने एजेंडे में लिया और काफी लोकप्रिय हो गए। उन्हीं के नेतृत्व में ठेका मजदूरों की सबसे लंबी अनिश्चितकालीन हड़ताल चली।

जल्दी ही शंकर गुहा नियोगी छत्तीसगढ़ के सबसे पॉवरफुल मजदूर नेता बन गए। उनकी यूनियन का विस्तार होने लगा। उद्योगपतियों में उनके नाम की दहशत हो गई। नियोगी को जान से मारने की धमकियां मिलने लगी और 18 सितंबर 1991 को पल्टन मल्लाह नाम के व्यक्ति ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी। पुलिस ने इस मामले में पल्टन मल्लाह के अलावा कुछ और उद्योगपतियों को भी आरोपी बनाया था।

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सोशल मीडिया में अनेक लोगों ने शंकर गुहा नियोगी को याद करते हुए उनसे जुड़े संस्मरण शेयर किए। फेसबुक और ट्विटर के अलावा कई ब्लॉग उनकी श्रद्धांजलि में लिखे गए। उनकी हत्या को लेकर अनेक उद्योगपतियों को भी निशाना बनाया गया। शंकर गुहा नियोगी को उन पुराने साक्षात्कारों को याद किया गया कि गांधीवादी रास्ता ही सबसे अच्छा रास्ता है। उन्होंने खुद कभी भी कोई चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा को राजनैतिक मोर्चे के रूप में खड़ा करने की कोशिश की। यह बात और है कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के केवल दो बार एक-एक विधायक ही जीत सके।

हत्या के बाद उनकी अंतिम यात्रा में हजारों लोगों का हुजूम जुटा था। कई लोग कहते है कि उनकी अंतिम यात्रा में आने वालों की संख्या लाखों में थी। लोग उनकी अंतिम यात्रा में नारे लगा रहे थे कॉमरेड नियोगी लाल जोहार और नियोगी भैया जिंदाबाद। सोशल मीडिया पर नियोगी को जैसी श्रद्धांजलि मिली, वैसी मास मीडिया में देखने को नहीं आई।

1 Oct. 2016

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