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इंदौर के राजघराने में सभी लोग अहिल्याबाई होल्कर की तरह न्यायप्रिय ही रहे हों, ऐसा नहीं है। दूसरे राज घरानों की तरह इंदौर का राज घराने के कुछ सदस्य भी अय्याशियों, अपराधों और अनैतिक कार्यों से जुड़े रहे हैं। जब भारत के दूसरे इलाकों में आजादी की लड़ाई का बिगुल बज रहा था, तब इंदौर के शाही परिवार के कुछ लोग अपने आप में मदमस्त होकर भोग विलास में लिप्त थे। यह इंदौर के इतिहास का काला अध्याय है। इस अध्याय से पुराने ज़माने के अखबार रेंज पड़े हैं और गूंगी फिल्मों के उस दौर में भी इस पर फ़िल्में बना रहे थे। ऐसी ही एक फिल्म 1925 में बानी थी, रखा गया था --'कुलीन काँटा '.

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इंदौर में ऐसी अनेक हस्तियां हैँ जो दुनियाभर में पहचानी जाती हैं. इंदौरियों को उनकी कद्र हो या न हो; उन्हें इंदौर की माटी की कद्र है। अगर ये लोग दिल्ली या परदेस जाकर बस गए होते तो दुनियाभर में उनकी अलग ही पहचान होती। अपने-अपने क्षेत्र में इन्होँने जो योगदान दिया है, वह विलक्षण है। इंदौर उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। ऐसे ही कुछ ख़ास इंदौरियों को हम कह कि ये घर के जोगी हैँ। आन गाँव में तो इन्हें सिद्ध कहा जाता।

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इंदौर की बात हो और यहाँ तो सिनेमाघरों की चर्चा न हो, यह हो नहीं सकता। इंदौर और फिल्मों का नाता, फिल्म कलाकार से लेकर निर्माण और वितरण से लेकर फाइनेंस तक का रहा है। नयी और पुरानी पीढ़ी के लोग दीवानगी की हद तक सिनेमाप्रेमी हैं। किसी से पूछिए --गांधी चौक कहाँ है? शायद ही कोई बता पाये, लेकिन रीगल चौराहा बोलेंगे तो सब जान जाएंगे. नेहरू चौक कोई नहीं जानता।

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इन्दौर। क्या चुनाव सिर्पâ कम पढ़ेलिखे लोगों, ठेकेदारों, व्यापारियों के लिए चर्चा का विषय होते हैं? क्या चुनाव में सिर्पâ पैसा, जाति, धर्म और झोपड़पट्टी का ही महत्व होता है? क्या चुनाव में बुद्धिजीवियों के वोटों की कोई कीमत नहीं होती? क्या मीडिया चुनाव में निर्णायक भूमका अदा करता है? कौन से मुद्दे प्रभावित करते हैं चुनावों को?

ये है कुछ सवाल जो आज हर पढ़े लिखे वोटर के सामने खड़े हैं। आज आम तौर पर बुद्धिजीवी यह मानता है कि चुनाव में उसकी भूमिका बहुत छोटी है। मतदाताओं के साथ ही साथ अब उम्मीदवारों की प्राथमिकताएं भी बदलने लगी है। जाति के आधार पर, इलाकों का बंटवारा करके, प्रभावशाली लोगों को साथ में लेकर अब चुनाव जीतने के गठजोड़ तय होते हैं। एक दौर था, जब मुस्लिम वोट निर्णायक होते थे। कांग्रेस पार्टी में तब ६० उम्मीदवार तक मुस्लिम हुआ करते थे। यानी करीब अठारह प्रतिशत। अब मध्यप्रदेश में जातीय समीकरण बदले हैं और अब मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या केवल छ: रह गई है।

जब सभी पार्टियां सामाजिक न्याय की बातें करती है, तब मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या का घटना बहुत गंभीर मामला है। सबसे ज्यादा दुख की बात यह है कि पिछले चुनाव में पूरे मध्यप्रदेश में ३२० सीटों में से एक भी सीट पर कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीत सका था। तब मुख्यमंत्री को पूरी विधानसभा में एक भी मुस्लिम न होने के कारण ऐसे व्यक्ति को मंत्री बनाना पड़ा था, जो विधानसभा का सदस्य नहीं था।

महिलाओं की उम्मीदवारी का मुद्दा भी बहुत महतक्वपूर्ण है। सभी पार्टियां सिद्धांत रूप में इससे सहमत है कि महिलाओं को कम से कम ३३³ सीटें दी जानी चाहिए। लेकिन पार्टियों ने खुद क्या किया? सभी दलों ने महिला उम्मीदवारों की घोर उपेक्षा की थी।

पिछले दस चुनावों में हमारे क्षेत्र में जो लोग खड़े हुए थे, उनकी कुछ सामाजिक प्रतिबद्धता थी, जो अब नजर नहीं आती। पहले कांग्रेस, जनसंघ और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार एक मंच पर सभा को संबोधिक करते थे, अब वह उदारता नहीं बची। जो भी जीतेगा, वह इन्हीं उम्मीदवारों में से रहेगा। इस हिसाब में विधानसभा का चेहरा वैâसा होगा, यह जाना जा सकता है।

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इंदौर की रंगपंचमी यानी रंगों का सालाना महाकुम्भ। लाजवाब। बेमिसाल। इंदौर की रंगपंचमी जैसा जश्न दुनिया में कहीं नहीं होता। इसकी तुलना अगर दुनिया के किसी फेस्टिवल से की जा सकती है तो वह है ब्राज़ील के रियो फेस्टिवल से। रियो से ज़्यादा मस्ती, उत्साह, उल्लास का माहौल रहता है यहाँ। रियो में नंगापन, फूहड़ता, अमर्यादा और समलैंगिकता का बोलबाला रहता है तो इंदौर में रंगपंचमी पर भारतीय संस्कृति, अपनापन और मर्यादा रहती है। यह बात दीगर है कि इंदौर की रंगपंचमी को हम विज्ञापित नहीं करते। दुनियाभर के पर्यटक रियो में इकट्ठे होते हैं, लेकिन इंदौर की रंगपंचमी का कोई विज्ञापन कहीं भी कभी नहीं किया गया। यहाँ तक कि घोटुल और भगोरिया तक की मार्केटिंग की जाती है लेकिन रंगपंचमी का नहीं। रियो फेस्टिवल में लाख लोग शामिल होते हैं, इंदौर की रंगपंचमी में भी लगभग इतने लोग हिस्सा लेते हैं, जिनमें से 5 लाख के करीब तो गेरों में शामिल होते हैं।

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