मेरी निजी वेबसाइट पत्रकारिता के गुरु श्री राजेन्द्र माथुर को समर्पित। 23 साल पहले यह साइट अंग्रेजी में लांच की थी। हिन्दी के पहले वेबपोर्टल वेबदुनिया डॉट कॉम के संस्थापक कंटेंट एडीटर के रूप में भी तमन्ना थी कि साइट हिन्दी में होती तो बेहतर होता। करीब पांच साल पहले यह वेबसाइट हिन्दी में भी बनी और अब उसे नए रूप में पेश करते हुए मुझे खुशी हो रही है।
गणतंत्र दिवस पर लगी फिल्म फाइटर के कुछ डायलॉग हैं :
- पीओके का मतलब है -पाक ऑक्यूपाइड कश्मीर; तुमने ऑक्यूपाइड किया है, मालिक हम हैं !
- उन्हें दिखाना पड़ेगा कि बाप कौन है?
- अगर हम बदतमीजी पर उतर आये तो तुम्हारा हर मोहल्ला IOP बन जाएगा -इंडिया ऑक्यूपाइड पाकिस्तान !
- ईंट का जवाब पत्थर से देने नहीं, धोखे का जवाब बदले से देने आये हैं।
- फाइटर वो नहीं, जो अटैक करता है, फाइटर वो है जो ठोक देता है !
- जंग में सिर्फ हार या जीत होती है, कोई मैन ऑफ द मैच नहीं होता।
- जो अकेला खेल रहा होता है, वो टीम के खिलाफ खेल रहा होता है।
पंकज त्रिपाठी इस फिल्म में उतने ही अटल जी लगे, जितने फिल्म पीएम नरेन्द्र मोदी में विवेक ओबेरॉय मोदी जी लगे थे और सम्राट पृथ्वीराज में अक्षय कुमार पृथ्वीराज लगे थे। फिल्म को देखकर लगा कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी सचमुच इतने पलायनवादी और बोरियत भरे व्यक्ति थे, जितने दिखाए गए हैं? अटल जी वास्तव में खाने पीने और शौक़ीन व्यक्ति रहे हैं तभी तो फिल्म में यह डायलॉग भी है कि ''मैं अविवाहित हूँ, कुंवारा नहीं !''
यह सस्पेंस-ड्रामा फिल्म क्रिसमस नहीं, संक्रांति के मौके पर आई है। यानी आप 'तिल गुड़ ध्या आणि गोळ गोळ बोला' की जगह 'मेरी क्रिसमस' बोलें ? फिल्म की शुरुआत क्रिसमस की पूर्व संध्या से शुरू होती है। मेरी क्रिसमस की रात और साजिश। हत्या, सस्पेंस और रोमांच से भरपूर यह फिल्म फ्रेडरिक डार्ड के फ्रेंच उपन्यास 'बर्ड इन ए केज' का रूपांतरण है।
यह मुंबई में एक लंबी रात की कहानी है जब इसे बॉम्बे कहा जाता था। कोलाबा के ईसाई बहुल इलाके में रहने वाला अल्बर्ट (विजय सेतुपति) सात साल बाद मुंबई लौटा है, अपनी माँ की मृत्यु पर शोक मना रहा है। अकेला है। निराशा से उबरने के लिए, जब वह खुद को क्रिसमस के जश्न में डुबाने की कोशिश करता है, तभी उसकी मुलाकात एक रेस्तरां में मारिया (कैटरीना कैफ) से होती है जो अपनी बेटी और बड़े टेडी बियर के साथ है, लेकिन बच्ची का पिता की वहां नहीं है। अल्बर्ट को लगता है कि कुछ गड़बड़ है लेकिन फिर भी वह उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। संयोग दर संयोग बनाते हैं। अल्बर्ट को लगता है कि उसकी रात हसीनतम होनेवाली है, लेकिन खुद को एक पिंजरे में फंसा हुआ पाता है।
ये हैं इंडियन सुमो राहुल बत्रा See Video
30 इंच के बाइसेप्स हैं और वजन मात्र 211 किलो।
दिल्ली के राहुल अनिल बत्रा को 'इंडियन हल्क', 'भीम' और न जाने कितने सम्मान मिल चुके हैं ! कई रेकॉर्ड उनके नाम पर हैं। भारत और एशिया भर के। कई बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में वे छाये हुए हैं।
क्या इतना वजन बढ़ाना ग़लत नहीं है?
राहुल कहते हैं कि मुझे जैसे बाइसेप्स करने थे, उसमें यह स्वाभाविक है। कोई 90 किलो का बंदा अगर 27-28 इंच के बाइसेप्स दिखाता है तो निश्चित मानिए कुछ गड़बड़ है। हो सकता है उसने 'सिन्थॉल' इंजेक्ट करवाया हो! सामान्य रूप से 80 या 90 किलो वजन के युवक के बाइसेप्स 16 या 18 इंच से ज्यादा के नहीं होंगे। यह आनुपातिक होना चाहिए!
डंकी कोई मास्टरपीस नहीं है, यह थोड़ी-थोड़ी राजकुमार हिरानी टाइप है, कुछ शाह रुख खान स्टाइल की है। हिंसा, सेक्स, फूहड़ता, कार रेस, भ्रूम भ्रूम नहीं है, थोड़ी ढंग की है। जिसमें रोचक कहानी, घिसे-पिटे जोक्स, शानदार अभिनय और इमोशन तथा देशप्रेम की चाशनी है। थोड़ी सी स्वदेश है, थोड़ी सी दंगल, थोड़ी सी कपिल शर्मा वाली अंग्रेज़ी, थोड़ी से आनंद का लेडी संस्करण है। मसाले सभी है। इच्छानुसार पसंद कर सकते हैं। डंकी चार पैरों वाले गधों के बारे में नहीं है, यह उन दो पैरों वाले गधों के बारे में है जो डंकी रूट यानी अवैध रूप से आप्रवासी होकर इंग्लैंड जाकर बस जाना चाहते हैं।अवैध रूप से जाने में रास्ते में आने वाली तकलीफों का उन्हें अंदाज नहीं है, लेकिन वे भारत में कुछ करने के बजाय विदेश जाकर ही कुछ करने में अपनी शान समझते हैं।
सैम बहादुर देखनीय फिल्म है। भारत के स्वर्णिम इतिहास की झलक इसमें है। विक्की कौशल ने मानेकशॉ के रोल में जान डाल दी। यह विक्की कौशल और डायरेक्टर मेघना गुलज़ार की फिल्म है।
सैम बहादुर भारत के पहले फील्ड मार्शल मानेकशॉ के जीवन पर आधारित फिल्म है, जिसमें विक्की कौशल ने मानेकशॉ का भूमिका की है। वे भारत के सबसे लोकप्रिय सेना नायकों में से थे और 1971 में बांग्लादेश के जन्म के समय भारत-पाक युद्ध के समय चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ थे। उनकी रणनीति के अनुसार ही भारत ने वह युद्ध लड़ा, जीता और पाकिस्तान का विभाजन करवाया। उनका नाम सैम मानेकशॉ था लेकिन लोग उन्हें सैम बहादुर इसलिए कहते थे, क्योंकि वे गोरखा राइफल्स के प्रभारी बनाये गए थे।
मैं नासमझ संदीप रेड्डी वंगा की कबीर सिंह को ही सबसे वाहियात फिल्म समझ रहा था, लेकिन जब एनिमल देखी तो लगा कि यह तो उससे भी आगे है। एनिमल मेरे जीवन की सबसे वाहियात फिल्मों में से है। आप इस फिल्म को जरूर देखिए ताकि पता चल सके कि फिल्में कितनी घटिया भी बन सकती हैं ! और ऐसी फिल्म बनाने के लिए इसके निर्माता का नाम इतिहास में दर्ज होना चाहिए। मैं न तो इसके निर्माता से मिला हूँ और न ही कलाकारों से। मेरे मन में उनके प्रति कोई आग्रह या दुराग्रह नहीं। न मेरा उन पर धेला बाकी है न उनका मुझ पर। मैं उनकी 'महानता' से भी प्रभावित नहीं हूँ।
पहले लगा कि मैं शायद गलती से किसी कोरियाई फिल्म को देखने आ गया हूं, जिसमें वैसी ही तर्कहीन बातें, हिंसा का अतिरेक, घटिया हाव भाव, संवाद और बेतुकी बातें हैं, लेकिन मीडिया से पता चला कि यह तो एक ऐसी फिल्म है जो सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके बनाई गई है और हिंदी के अलावा तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ में भी बनी है। यानी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक समान....है।
एमपी में जो सोचा नहीं, वह होगा, वीडियो देखें
पूरे एमपी के चुनाव को समझिए, सिर्फ एक वीडियो से
-क्या सचमुच सत्ता विरोधी लहर हावी है?
-भाजपा के पास कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं है जिसके चेहरे पर चुनाव लड़ा जा सके?
-और मध्य प्रदेश में एंटी इंकम्बेंसी है और इस वजह से बीजेपी की तरफ से 3 मंत्रियों सहित 7 सांसद और एक महासचिव मैदान में उतार दिए गए
-चुनाव प्रचार के आखिरी दिन जबरदस्त बयान-- प्रियंका का बयां और सिंधिया का पलटवार, थोड़ा चौंकाने वाला ! ये बयानबाजी किस दिशा में चुनाव को ले जा रही है?
-रेवड़ी कल्चर से शुरू हुआ था
-भाषा का स्तर गिर गया, क्या जनता इससे प्रभावित होती है
-सिद्धांतों को भूल गए, कौन सी विचार धारा किसकी है, कोई बड़ी वैचारिक लड़ाई नहीं है
-बजरंग बली की एंट्री
-सिंधिया के कद को लेकर व्यंग्य ठीक नहीं
-1857 के लिए क्या ज्योतिरादित्य जवाबदार है?
-क्या 1975 की इमरजेंसी के लिए प्रियंका दोषी हैं?
-कमलनाथ और दिग्गी राजा के लिए आखिरी मौका है।17 November 2023
अगर स्वादिष्ट बनी खीर में कोई हींग का छौंक लगा दे तो? ... तो गणपत जैसी फिल्म बन जाती है। यह फिल्म केवल और केवल टाइगर श्रॉफ के लिए बनी है। टाइगर के एक्शन, डांस और फाइट के लिए। इसमें अमिताभ बच्चन और कृति सेनन फ़ोकट खर्च हो गए बेचारे!
इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी है कहानी में ! दर्शक उससे कनेक्ट ही नहीं हो पाता। निर्माता इस स्पोर्ट्स फिल्म कहकर प्रचार कर रहे हैं। 2070 की कहानी बनाई गई है। 'गणपत' डायस्टोपियन एक्शन फिल्म है। काल्पनिक दुनिया की कहानी। यहां दुनिया दो भागों में बँटी हुई है। अमीर और गरीब। अमीर भोग विलास में लिप्त हैं, ग़रीब रोते रहते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि उनकी दुनिया में कोई गणपत आएगा और उद्धार कर देगा। अमीर भी बॉक्सिंग रिंग में, गरीब भी है। बॉक्सिंग रिंग के कारण ही उनकी दुनिया की बुरी गत हुई थी, बॉक्सिंग के कारण ही उनका उद्धार होता है। गणपत आता है, बॉक्सिंग करता है। गरीब अपना सब कुछ बॉक्सिंग के सट्टे में लगा देते हैं और जीत जाते हैं, उनकी दुनिया बदल जाती है।
साला बॉक्सिंग रिंग नहीं हुआ, रतन खत्री का अड्डा हो गया। बिना कुछ किये माल अंदर। गरीबी दूर!
हीरो तस्कर है। उसका बाप भी तस्कर है।उसका चाचा भी तस्कर है। हीरो को तस्करी, गुंडागर्दी और हिंसा में खूब मजा आता है, लेकिन वह तस्करी का धंधा छोड़कर शरीफ आदमी इसलिए बन जाता है क्योंकि उसका बाप नर बलि करने लगता है और उसकी जुड़वा बहन की ही बलि चढ़ा देता है। बाप से भागकर बेटा शरीफ लोगों की जिन्दगी जीने लगता है, पर वहां भी लफड़े ! हीरो तस्करी का धंधा मज़बूरी में छोड़ता है, नैतिकता में नहीं।
फिल्म में हिंसा और मारधाड़ के अलावा बेसिर पैर की कहानी, जबरन ठूंसे गए गाने और गले नहीं उतरनेवाले घटनाक्रम के अलावा कुछ नहीं है।
कश्मीर के पहलगाम, गुलमर्ग और सोनमर्ग की वादियों के नज़ारे और लर्निंग मशीन्स तथा ए आई जैसे मोकोबोट कैमरे से शूट किये गए फाइटिंग सीन भी ज्यादातर दर्शकों को लुभा नहीं पाएंगे।
विजय के अंधभक्त ही इसे पसंद कर सकते हैं।
अगर आप बाइकर हैं, बाइकिंग का शौक रखते हैं और हिमालय की वादियां आपको लुभाती हैं तो यह फिल्म ज़रूर देखें। मज़ा आ जाएगा। वरना चार खूबसूरत महिलाओं को ब्रूम ब्रूम करते बाइक दौड़ाते हुए देखना भी बुरा नहीं।
क्या फिल्म का भी मेल और फीमेल वर्जन होता है? यह फिल्म देखकर लगता है कि होता है भाई ! गत नवंबर में राजश्री की फिल्म ऊंचाई आई थी, जिसमें चार बुजुर्गों (अमिताभ, डैनी, अनुपम खेर और बोमन ईरानी) का लक्ष्य एवरेस्ट के बेस कैम्प तक पहुंचने का था। 'धक धक' उसी का फीमेल वर्जन लगती है।
फिल्म में चार सुन्दर महिलाएं दिल्ली से मोटर साइकल पर लद्दाख की यात्रा पर बाइकिंग करने निकल पड़ती हैं। धक धक करती एक साथ चार मोटर साइकलों के इंजन धड़धड़ाते हैं और वे सड़क की बाधाओं को चीरती हुई निकलती हैं तब लगता है मानो उन चारों के पंख निकल आये हैं।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर
शिलान्यास किंग और लोकार्पण महारथी शिवराज सिंह
शिवराज सिंह ने छह ऑक्टोबर 2023 को एक ही दिन में 12000 से ज्यादा कार्यों का लोकार्पण और 2000 से ज्यादा निर्माण कार्यों का भूमिपूजन करके रिकॉर्ड बना लिया है। निश्चित ही यह आंकड़ा गिनीज़ बुक्स में दर्ज होना चाहिए। चुनाव की तारीखों का ऐलान होने का वक्त आ चूका है और कभी भी आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी। एक साथ, एक ही दिन में इतने उद्घाटन और लोकार्पण प्रधानमंत्री ने भी नहीं किये हैं। एमपी में मामा हैं, तो यह मुमकिन है !
मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव बीजेपी शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को सामने रखकर नहीं लड़ रही है, बल्कि नरेन्द्र मोदी के चेहरे को सामने रखकर लड़ रही है। मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव बीजेपी के लिए कितने महत्वपूर्ण है इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले 11 दिनों में तीन बार मध्य प्रदेश का दौरा कर चुके हैं। छह महीने में वह मध्य प्रदेश की नौ यात्राएं कर चुके हैं। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में अमित शाह ने पिछले दिनों कहा था कि अगर मध्य प्रदेश का चुनाव हार गए तो केन्द्र में अगले 50 साल तक सरकार बनाना हमारे लिए मुश्किल होगा। अगर मध्य प्रदेश जीत गए तो हमारे लिए यह जीत दिल्ली की राह आसान करेगी।
मध्य प्रदेश में चुनाव जीतना बीजेपी के लिए इसलिए भी जरूरी है कि यहां लोकसभा की 29 सीट हैं, जिनमें से 28 बीजेपी के पास हैं। अगर 2024 के लोकसभा चुनाव में इन सीटों में कमी होती है तो दिल्ली में बीजेपी की सरकार को चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को आम सभाओं में तवज्जो नहीं देते। प्रधानमंत्री राज्य के मुख्यमंत्री को क्रेडिट देने में साधारण सौजन्य भी नहीं दिखाते, वह भी बीजेपी के मुख्यमंत्री को। प्रधानमंत्री ना तो शिवराज सिंह चौहान की तारीफ करते हैं और ना ही मध्य प्रदेश सरकार की योजनाओं की प्रशंसा में दो शब्द भी कहते हैं। क्या इसका कारण यह है कि नरेन्द्र मोदी 2012 से ही शिवराज सिंह चौहान में एक प्रतिस्पर्धी को देखते हैं?
''संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे''
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (25).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
''हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है।'' यही सन्देश था भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा का, जो 1934 में प्रकाशित हुआ था। चन्द्रगुप्त मौर्य काल की ऐतिहासिक घटना के आधार पर यह उपन्यास फ़िल्मकार केदार ( या किदार) शर्मा को वह इतना पसंद आया था कि उन्होंने 1941 में महताब, ऐ. एस. ज्ञानी, नंदरेकर, भारत भूषण, लीला मिश्रा, मोनिका देसाई आदि को लेकर फिल्म बनाई थी। इसमें "तुम जाओ बड़े भगवान बने, इंसान बनो" गाना लोकप्रिय हुआ था, जो केदार शर्मा ने ही लिखा था। इसका संगीत झंडे खान का था।
उस साल की यह दूसरी सुपरहिट फिल्म थी। इसमें हीरोइन थीं सूरत पास की सचिन रियासत के नवाब की बेटी मिस महताब। हीरो भारत भूषण की यह पहली फिल्म थी और महताब ने श्वेत श्याम फिल्म में सनसनीखेज स्नान सीन फिल्माया था।
''छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं''
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (24).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
महान गीतकार शैलेन्द्र के जन्म की शताब्दी मनाई जा रही है। उन्होंने केवल 43 वर्ष का जीवन पाया और सैकड़ों अद्भुत गीत रचे। सभी एक से बढ़कर एक! हर मूड और हर मिजाज़ के गाने। 1962 में आई 'रंगोली' फिल्म का यह गाना कई कारणों से यादगार है। जिस मूड और सिचुएशन में उसका मुखड़ा तैयार हुआ, वह अलग ही दास्तान है। गाना कहता है कि छोटी से ये दुनिया है और इसमें बिछड़ने या जानबूझकर अलग हो जाने के बाद भी मेल मुलाकात अवश्यंभावी है।
छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं
तुम कहीं तो मिलोगे, कभी तो मिलोगे
तो पूछेंगे हाल...
वैसे हमारी दुनिया जो केवल पृथ्वी के इर्द गिर्द है, जो इस आकाशगंगा का उतना ही बड़ा हिस्सा है जितना कि सुई की नोक! हबल लॉ की मदद से प्रोफेसर गैरी ने आकाशगंगा की चमक और हमसे उसकी दूरी के बारे में पता लगाने की कोशिश की थी। ब्रह्मांड में 10 हज़ार करोड़ आकाशगंगाएं हैं और हर आकाशगंगा में करीब 20 हज़ार करोड़ तारे हैं। अब इन संख्याओं का गुणा करके ब्रह्मांड में तारों की संख्या का पता लगाया जा सकता है। अनुमान कहते हैं कि ब्रह्मांड 93 अरब प्रकाश वर्ष चौड़ा है. प्रकाश वर्ष वो पैमाना है जिससे हम लंबी दूरियां नापते हैं। (प्रकाश की रफ़्तार एक सेकेंड में क़रीब दो लाख किलोमीटर होती है) यानी मानव क्षमता से बहुत ही आगे !
''कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता''
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (23).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
निदा फ़ाज़ली का नाम लेते ही जगजीत सिंह याद आते हैं। जगजीत सिंह ने निदा फ़ाज़ली की बहुतेरी ग़ज़लों को स्वर दिया था, लेकिन ‘आहिस्ता आहिस्ता’ फिल्म (1981) के इस गीत (ग़ज़ल) को भूपेंदर ने गाया था। ग़ज़ल के पहले शेर यानी मतले की पहली लाइन ही अपने आप में मुहावरा बन गई है। जब भी किसी के ख़्वाब की तामीर नहीं होती, तब सांत्वना में कह दिया जाता है - कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ! यानी कोई बात नहीं, हरेक के सपने कहाँ हक़ीक़त में बदलते हैं ?
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली सूरदास, कबीर और गालिब की शायरी से बहुत प्रभावित थे। निदा की शायरी में इन तीनों की ही झलक मिलती है। हाल ही में कहीं पढ़ा था कि निदा फ़ाज़ली ने ग़ज़ल लिखी तो ग़ालिब, नज़्म लिखी तो फैज़ और दोहा लिखा तो कबीर याद आ गए। हर विधा में उन्होंने खूब लिखा। बेख़ौफ़ होकर लिखा।
जयंती रंगनाथन का नया उपन्यास 'मैमराज़ी' कई बातों से ख़ास है। यह सरल भाषा में है, दिलचस्प है, किस्सागो शैली में है और भिलाई जैसे शहर की 'सेलेब्रिटी टाइप' भाभियों और देवर की जिंदगी के बारे में व्यंग्यात्मक लहजे में है। कभी लगता है कि वापस छोटे शहर की जिंदगी में लौट आये हैं, कभी लगता है कि कोई सीरियल डीडी पर देख रहे हैं!
'मैमराज़ी' की जान उसके कैरेक्टर हैं। सभी उपन्यासों के होते हैं, लेकिन इसमें वे जीवंत लगते हैं। व्हाट्सप्प पर घूमते किस्से हैं। यहाँ गर्लफ्रेंड का मारा बेचारा है, जिसे गे समझ लिया गया है। भिलाई का लोकल रणवीर सिंह हैं, भाभी या कहें कि भाभियाँ हैं, देवर है, गर्लफ्रेंड के मामले में तंगहाल लड़के हैं, भाभी के स्कर्ट और उससे जुड़े गॉसिप हैं. और भी किस्से हैं। उपन्यास नहीं, दिलचस्प किस्सों का गुलदस्ता या कहें चटखारे हैं। उस शहर के चटखारे, जहाँ की लेडीज़ लोगों का फेवरेट टाइमपास है - दूसरों की हेल्प करना, दूसरों का लाइफ कंट्रोल करना ... पर ये नहीं करेगा तो फिर वह लोग क्या करेगा ! अगर आप इस किताब का बीच में भी कोई भी पन्ना खोल लें तो भी आपको उसकी रोचकता वैसी ही लगेगी।
''ऐ मालिक तेरे बंदे हम"
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (22).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
इस बार एक प्रार्थना गीत। हो सकता है आपने यह नहीं सुना हो या नहीं गाया हो, पर एक पूरी पीढ़ी इसे स्कूल जाने पर पढ़ाई शुरू होने के पहले गाया कराती थी। चर्चा 1957 में लगी फिल्म 'दो आँखें 12 हाथ' के एक गीत की। मेरा निजी अनुभव है कि इस गीत में प्रार्थना के जो शब्द हैं वे निराशा के पलों में बड़ा सुकून देते हैं। कोई भी इसे आज़मा सकता है। जब कभी मायूसी महसूस हो, तब शांतचित्त होकर इसे सुना जा सकता है। नेकी और बदी का चोली दामन का साथ है। जहाँ पुण्य है, वहां पाप भी है; जहाँ भलाई है, वहां बुराई भी है; जहाँ अपकार है, वहां उपकार भी है। बदी से बचने का एक तरीका है हम मालिक से प्रार्थना करें कि वह हमें बचा ले। इसलिए बचा ले कि जब हम संसार से विदा लेने की बेला आये तो हँसते हुए रवानगी दर्ज करा सकें। एक वही है जो हमें इस दुनिया की बुराइयों से निजात दिला सकता है। हे परम पिता परमात्मा, हम सभी तो तेरे बन्दे हैं। तू ही पालनहार है हमारा।
ऐ मालिक तेरे बंदे हम
ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चले और बदी से टले,
ताकी हँसते हुए निकले दम
शाहरुख़ खान की 169 मिनट 14 सेकण्ड की फिल्म में 17 मसाले और 18 स्वाद हैं। चटखारे लेते जाओ, लेते ही जाओ और 'पिच्चर' खलास ! जैसे मटर पनीर मसाला ऑर्डर किया हो और उसमें न मटर हाथ आया, न पनीर। लेकिन हर तरह का फ़िल्मी मसाला उसमें ज़रूर मिला।
इसमें फैक्ट्स, फिक्शन, एक्शन, ड्रामा और इमोशन के साथ एक मैसेज भी है। इंटरवल के पहले फिल्म बेहद दिलचस्प है, और इंटरवल के बाद थोड़ी सुस्त है। फिल्म में शाहरुख़ डबल रोल में हैं और बस वही , वही हैं। मैं यहाँ आपको कहानी नहीं बताऊंगा, पर इसकी रेसिपी बता रहा हूँ।
फ़िल्मी मसाले में शामिल होता है मारधाड़ और एक्शन, वो है। घोड़े, हाथी, चींटीयां हैं और शाहरुख़ खान दोनों हाथों की दो दो अँगुलियों के सहारे पुशअप्स लगते भी नज़र आते हैं। चुनाव आ रहे हैं तो वोटर के लिए सन्देश भी इसमें है। गीत- संगीत भी है। ग्लैमर है, रोमांस है, देशभक्ति है, आतंकवाद है, मुंबई मेट्रो की हाइजैकिंग है, क्राइम है, देश-प्रेम है, बाप-बेटे का प्यार है, रिवेंज है, डायलॉगबाज़ी है, शाहरुख़ हीरो है तो सुपर हीरो है, शाहरुख़ विलेन है तो सुपर विलेन है, पुलिस की वर्दीवाला शाहरुख़ है, टकला विलेन शाहरुख़ भी है, शाहरूख़ के बॉडी- बल्ले है, इश्कबाजी है, इमोशन की चाशनी है, हीरो-हिरोइन की फाइट है, मोगेम्बो जैसा अट्टहास है, हथियारों के सौदागर हैं, हीरो से 19 साल छोटी उसकी फ़िल्मी माँ हैं।
''छाँव है कभी, कभी है धूप ज़िंदगी"
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (21).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
आज एक हँसी और बाँट लो, आज एक दुआ और मांग लो, आज एक आँसू और पी लो, आज एक जिंदगी और जी लो, आज एक सपना और देख लो, आज... क्या पता, कल हो ना हो...! सबसे इंपॉर्टेंट है आज, आज और सिर्फ आज ! 2003 में आई फिल्म 'कल हो न हो' का यह गाना आज मुस्कुराने और खुश रहने के बारे में है क्योंकि कल किसी ने नहीं देखा है।
यह कमर्शियल फिल्म थी, जिसका लक्ष्य धन कमाना था, लेकिन इस गाने का सन्देश था कि आज के लिए जियें क्योंकि कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा। जिंदगी का रूप हर पल बदलता रहता है। कभी कष्ट आते हैं , कभी खुशियां, कभी हताशा हाथ लगती है, लेकिन फिर भी कभी-कभी आशाएं और बलवती हो जाती हैं।
हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िंदगी
छाँव है कभी, कभी है धूप ज़िंदगी
हर पल यहाँ, जी भर जियो
जो है समाँ, कल हो न हो
''काहे को दुनिया बनाई, तूने काहे को दुनिया बनाई"
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (20).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र अगर जीवित होते तो 30 अगस्त 2023 को अपनी 100 वीं सालगिरह मनाते। उस दिन की पूर्व संध्या पर, 29 अगस्त को इंदौर में उनके बेटे दिनेश की उपस्थिति में एक भव्य कार्यक्रम होनेवाला है। (उनकी फिल्म 'तीसरी कसम' के बारे में मैं 23 जून को लिख चुका हूँ, सजन रे झूठ मत बोलो!) इसी फिल्म में यह दूसरा गाना है जो लाखों लोगों को आज भी बहुत प्रिय है : दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनाई, तूने काहे को दुनिया बनाई !
गीतकार ने यह नहीं लिखा कि हे भगवान! यह दुनिया क्यों बनाई? उन्होंने लिखा - दुनिया बनाने वाले ! उन्होंने ब्रह्मा नहीं लिखा। यहाँ वे किसी एक धर्म की बात नहीं कर रहे। धर्मों की अपनी-अपनी व्याख्या है कि दुनिया किसने बनाई, क्यों बनाई, कैसे बनाई? जो भी हो- यह तय है कि दुनिया कोई गूगल से डाउनलोड नहीं हुई है, क्योंकि वैज्ञानिक तथ्य यह है कि गूगल तो क्या, हमारी धरती और इस ब्रह्माण्ड की औकात अरबों-खरबों आकाशगंगाओं में सुई की नोक के बराबर भी नहीं है।
"जिन्दगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मकाम"
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (19).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
करीब आधी सदी पहले 1974 में फिल्म आई थी -'आपकी कसम'। जिसका यह कालजयी गाना 'जिन्दगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मकाम' आज भी अपने दार्शनिक बोल, मधुर संगीत और स्वर के लिए याद किया जाता है। जब किशोर कुमार, आनंद बक्शी, आर. डी. बर्मन और जे. ओम प्रकाश जैसी विभूतियां एक साथ मिलीं और सुपरस्टार राजेश खन्ना पर कोई गाना फिल्माया गया तो उसका कालजयी या क्लासिक होना तो लाजमी था। जिस तरह की फिल्म थी, जैसा फिल्मांकन था, उसका कोई तोड़ नहीं।
यह गाना राग बिहाग में है। कल्याण थाठ। यह रात्रि के प्रथम पहर (शाम 6 से रात्रि 9 बजे ) का राग है।
जीवन एक ऐसी यात्रा है, जहां ज्यादातर चीजों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं। हम नहीं जानते कि कौन से पल विशेष पल होंगे। हम नहीं जानते कि हम उन खास लोगों से कब मिलेंगे। कब हममें शक करने का रोग लग जाए और हमारे अपने ही दुश्मन हो जाएं। यह गाना अपने हालातों से रू-ब-रू होने और फ्लैशबैक में जाकर चीज़ों को देखने और उन्हें टटोलने का मौका देता है :
ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मक़ाम
वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
जिंदगी एक सफर है जहाँ हम कई मकामों से होकर गुजरते हैं। इसकी खूबी यही है कि हम जिस मक़ाम से गुज़रते हैं, उसे फिर से पाना संभव नहीं। खोया बचपन वापस नहीं लाया जा सकता। बीत चुकी जवानी वापस आने से रही।
फूल खिलते हैं लोग मिलते हैं
फूल खिलते हैं लोग मिलते हैं मगर
पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं
वो बहारों के आने से खिलते नहीं
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (17).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
हिन्दी फिल्म जगत में 1957 यादगार साल था। आजादी मिले दस साल ही हुए थे। इसी साल गुरुदत्त की 'प्यासा', दिलीप कुमार की 'नया दौर' और नरगिस की 'मदर इण्डिया' लगी थी। 'प्यासा' हिन्दी सिनेमा के इतिहास की दुर्लभ फिल्मों में से एक है। इसे विश्व की 100 वर्ष की 100 सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल किया गया है। दरअसल 'प्यासा' कोई फिल्म नहीं, सेल्युलाइड पर छवियों से रचा काव्य थी। जिसके बारे में सत्यजीत रे ने कहा था : "कमाल का सेंस ऑफ़ रिदम और कैमरा की फ्लूइडिटी."
गुरुदत्त द्वारा निर्देशित, निर्मित एवं अभिनीत हिन्दी की सदाबहार रोमांटिक फ़िल्म। इसमें दस गाने थे। सभी ज़बरदस्त ! देशभक्ति का गाना 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर, वे कहाँ हैं' नेहरूजी को बहुत पसंद था। इसके रोमांटिक गाने 'हम आपकी आँखों में इस दिल को..', 'जाने क्या तूने कही', और 'आज साजन मोहे संग लगा लो' भी खूब बजे।
एक लुंगाड़ा था। एक लुंगाड़ी थी। लुंगाड़ा धनलक्ष्मी लड्डू बेचनेवाली कंपनी का एकमेव उत्तराधिकारी। 2,000 करोड़ की कम्पनी। लुंगाड़ी एक न्यूज़ चैनल में क्रांतिकारी एंकर।
लुंगाड़ा पंजाबी जट, लुंगाड़ी सुसंस्कृत या यूं कहें कि सुबांग्ला खानदान की। लुंगाड़े की इंग्लिश माशाअल्लाह। लुंगाड़ी एलएसआर और ब्रिटेन में पढ़ी अंग्रेजीदां। लुंगाड़ी की मां अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर। आधी अंग्रेजन।
लुंगाड़े का दादा 1978 के ज़माने का इमरान हाश्मी और लुंगाड़ी का बापू 1998 की माधुरी दीक्षित जैसा! लुंगाड़ा रणवीर सिंह और उसका दादा धरम पाजी और दादी जया बच्चन।
लुंगाड़ी आलिया भट्ट कपूर और उसकी दादी शबाना आज़मी। लुंगाड़े के दादा धरम पाजी और लुंगाड़ी की दादी शबाना का पुराना टांका।
पुराने दौर के छायागीत। झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में, आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आये, आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा, दो दिल मिल रहे हैं मगर चुपके चुपके आदि। बिनाका गीतमाला जैसा माहौल !
लुंगाड़ा अपनी लुंगाड़ी से ज्यादा जेवर पहनता है। कुत्तों के गले में बाँधने जैसी मोटी (सोने की) चेन, कान में हीरे के टॉप्स।लुंगाड़ी थोड़े कम में काम चलाती है।
लुंगाड़ा अधनंगा रहता है, हमेशा छाती दिखाता है। लुंगाड़ी बेचारी बैकलेस में काम चलाती है।
''चोरी में भी है मज़ा..."
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (16).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
चोरी या चौर्य कर्म में मज़े की यह बात 1998 में आई विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 'करीब' के गाने में कही गई। गाना लिखा था जानेमाने शायर डॉ. राहत इन्दोरी ने। गाने की शुरुआती लाइन हैं :
यह क्या हुआ कैसे हुआ
यह कब हुआ क्या पता
चोरी चोरी जब नज़रें मिली
चोरी चोरी फिर नींदें उड़ी
चोरी चोरी यह दिल ने कहा
चोरी में भी है मज़ा
''ओह रे ताल मिले नदी के जल में ..."
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (15).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
इंदीवर ने ज़्यादातर मोहब्बत के गाने लिखे हैं, लेकिन 1968 में आई फिल्म 'अनोखी रात' का यह गाना अलहदा है। यह गाना न केवल अपने बोल के लिए, बल्कि रोशन के संगीत, मुकेश की मधुर आवाज़ और फिल्मांकन के लिए भी बेहद पसंद किया गया था। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में नदिया के किनारे चल रही बैलगाड़ी में यह गाना फिल्माया गया था। उस दौर में कॉलेज का कोई छात्र ऐसा नहीं होगा, जिसने यह गीत गुनगुनाया न हो। इस गाने की विवेचना हर विद्यार्थी अपनी सुविधा और ज़रूरत के मुताबिक करता रहा है। हर महफ़िल में, हर मंच पर, अपनी या दूसरे की गर्लफ्रेंड के सामने भी। आज भी कराओके प्रेमियों के लिए यह लोकप्रिय गीत है।
''संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है..."
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (14).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
बी. आर. चोपड़ा की फिल्म 'धुंध' 1973 में आई थी। एक मर्डर-मिस्ट्री। अगाथा क्रिस्टी के नाटक - 'द अनएक्सपेक्टेड गेस्ट' पर आधारित! फिल्म की शुरूआत ही एक गाने से होती है। गहरी धुंध है। परदे पर टाइटल्स आ रहे हैं। बैकग्राउंड में गाने की आवाज़ आ रही है। जाहिर है कि इस गाने का फिल्म में बहुत ज़्यादा महत्व है। यह गाना फिल्म की भूमिका है। दर्शकों में फिल्म के प्रति उत्सुकता बने और वे कुर्सी से चिपके रहें, यही लक्ष्य। फिल्म के टाइटल्स ख़त्म होते हैं। गाना ख़त्म होता है।
गाने के बोल थे :
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है
ये मोह मोह के धागे, तेरी उँगलियों से जा उलझे
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (13).
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
तुम पागल हो और मुझे पागल लोग बहुत पसंद हैं!
ज़िन्दगी केवल ब्लैक और व्हाइट नहीं होती! ज़िंदगी में ग्रे शेड भी होते हैं और केवल पचास शेड नहीं, हज़ारों!
अगर कोई आपका अनकहा सुन ले तो मान लीजिए कि वह आपको, आपसे भी ज़्यादा समझता है!
'ये मोह मोह के धागे तेरी उँगलियों से जा उलझे' गाने के बारे में कहा जाता है कि इसमें जीवन दर्शन से ज्यादा प्रेम का दर्शन है। मेरी नज़र में यह हाल के वर्षों का सबसे सुरमयी और अर्थवान गाना है। अगर जीवन में प्रेम तत्व शामिल हो तो जीवन की सार्थकता के साथ ही प्रेम की सार्थकता भी बढ़ जाती है।
इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
"ओ माझी रे! अपना किनारा नदिया की धारा है"
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (12).
1975 का साल कई मायनों में खास रहा। इमरजेंसी लगी। वियतनाम युद्ध थमा। भारत ने पहला उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा। सिक्किम का भारत में विलय हुआ। बिल गेट्स ने माइक्रोकम्यूटर सॉफ्टवेयर शब्दोंको मिलाकर माइक्रोसॉफ्ट शब्द का उपयोग शुरू किया। ...और? और 1975 में ही जय संतोषी माँ, शोले, दीवार जैसी सुपरहिट फ़िल्में रिलीज हुईं। इसी साल #गुलज़ार की एक या दो नहीं, बल्कि तीन-तीन फ़िल्में रिलीज़ हुईं। मौसम, आंधी और खुशबू।
खुशबू शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित थी। चार गाने थे। एक था :
"ओ माझी रे! अपना किनारा नदिया की धारा है"
"ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय "
हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आनन्द ' 1971 में लगी थी उसी का गाना है -'ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हंसाये, कभी ये रुलाए',ज़िन्दगी क्या है? एक पहेली ही तो है ! किसी टेक्नीकलर सपने की तरह इतनी मनमोहक, इतनी मादक है कि वह अपना जाल बुनती ही रहती है और मानव को प्रलोभनों में उलझाती है। जो उस मायावी सपने का पीछा करता है वह कभी हंसता है तो कभी हताश होता है।
हमें पता ही नहीं चलता कि हमारी जिन्दगी कब कौन सा रूप धारण कर लेगी। ज़िन्दगी का आगे क्या होने वाला है, इससे अनजान हम सभी अपनी जिन्दगी जीते चले जाते है! ज़िन्दगी रोज़ नई चुनौतियां हमारे सामने रखती है और हम उनको स्वीकार करते-करते इतने बदलते जाते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता।
"लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे"
1963 में प्रदर्शित फिल्म 'दिल ही तो है' का गाना है -"लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे"! यह गाना दशकों बाद भी अपने बोल, संगीत, गायन, नृत्य और गाने की सिचुएशन के लिए याद किया जाता है।
कबीर का भजन है -मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया। अमीर खुसरो ने भी कुछ इसी भाव का शेर कहा था, शब्द अलग थे, पर मंतव्य ऐसा ही रहा होगा। साहिर लुधियानवी के लिखे इस गाने के भाव दार्शनिक हैं, लेकिन फिल्म में इसकी प्रस्तुति मजाकिया लहजे में थी। पर्दे पर यह गाना छद्म रूप धरे नकली दाढ़ी-मूंछ वाले राज कपूर गाते हैं और पद्मिनी प्रियदर्शिनी इस शास्त्रीय गीत पर लाजवाब कर देनेवाला नृत्य करती हैं।'दिल ही तो है' 1960 के दशक के मुस्लिम खान बहादुर परिवार की एक रॉम-कॉम फिल्म थी यानी रोमांटिक कॉमेडी।
"वो यार है जो ख़ुशबू की तरह, जिसकी जुबां उर्दू की तरह"
साहिर के दो गानों ('जो भी है, बस यही एक पल है' और 'मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया') की चर्चा के बाद अब आज गुलजार के लिखे गाने की चर्चा। जिसकी एक लाइन मुझे 'दिल से' पसंद है। वैसे तो पूरा गाना ही ज़बर्दस्त है। सूफ़ी संत बुल्ले शाह ने लिखा था -'"तेरे इश्क नचाया, करके थैया थैया!" गुलज़ार ने लिखा -"चल छैया छैया, चल छैया छैया!सवाल है कि वो कौन यार है जो खुशबू की तरह है? वो शायद ऊपरवाला है जिसकी ज़ुबान दुनिया की सबसे मीठी बोलियों में से एक, उर्दू जैसी है! इस गाने की सभी लाइन अनूठी थीं और फिल्मांकन बेजोड़! 1998 में आई यह फिल्म आज तक दिलों पर राज कर रही है।
"मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया"
पिछले सप्ताह मैंने साहिर लुधियानवी के एक गाने की बात की थी, जिसकी एक-एक लाइन में जिंदगी का पूरा दर्शन था - जो भी है, बस यही एक पल है!संयोग ही है कि आज जिस गाने की चर्चा कर रहा हूँ वह भी साहिर लुधियानवी का लिखा है। 1961 में आई फ़िल्म हम दोनों का गाना है यह :मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
इसी में आगे एक लाइन है- बर्बादियों का सोग (दुःख, अफसोस) मनाना फिजूल था, बर्बादियों का जश्न मनाता चला गयासोग यानी दुःख! अफसोस! इसीलिए हीरो गीत गाते हुए धुएं में हर फ़िक्र को उड़ाने की बात करता है, जिससे मेरी असहमति है क्योंकि धुंआ उड़ाना सेहत के लिए हानिकारक है।
"जो भी है, बस यही एक पल है"
हर शुक्रवार फिल्म देखता हूँ, पर बीते कुछ शुक्रवार फ़िल्म देखने के बाद भी कुछ लिखने का मन नहीं हुआ!
मन उन पुरानी कुछ फिल्मों पर लौट गया, जब न तो VFX थे, न Dolby साउंड; न 3D-4D तकनीक थी, न Bigpix स्क्रीन, न ATMOS, न तमाम तामझाम! अब फ़िल्म बनाने और देखने-दिखाने का सलीका बदल गया है; पर लगता है फिल्मों की आत्मा कहीं भटक गई है!
याद आता है वह दौर, जब हीरोइन का एक पॉज़ दिल को चीर कर रख देता था, एक्टर आंखों से वह कह देता था जो किसी भाषा का मोहताज नहीं! गानों की एक लाइन पूरी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बयां कर देती थी! बरसों तक गाने की लाइन दिमाग़ और दिल में उतरी रहती थी।....और हां, अब तक उतरी हुई है!
वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक नई दुनिया के पूर्व संपादक, पद्मश्री अभय छजलानी अब हमारे बीच नहीं रहे। गुरुवार, 23 मार्च २०२३ को अल सुबह उनका निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार थे। वे मध्य प्रदेश टेबल टेनिस संगठन के अध्यक्ष रह चुके हैं। वे इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी (इलना) के पूर्व अध्यक्ष थे, इसके लिए उन्हें 2002 में चुना गया था। भारत सरकार ने उन्हें पत्रकारिता में योगदान के लिए 2009 में पद्म श्री के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया था। अभय छजलानी का जन्म 4 अगस्त 1934 में हुआ था।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक पत्रकार, वक्ता और शोधार्थी के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने हिन्दी को उचित सम्मान देने के लिए भी कार्य किया। एक राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार के रूप में उनकी उपस्थिति प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों देखी जा सकती है। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के जानकारों के रूप में उनकी ख्याति है। वे करीब १० साल तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में कार्य कर चुके हैं। हिन्दी समाचार एजेंसी ‘भाषा’ के संस्थापक-सम्पादक के रूप में उन्होंने भाषा से जुड़े कई प्रयोग किए।
'प्यार का पंचनामा' बनाने वाले लव रंजन की 'माइंडलेस' और 'इमोशनलेस' फिल्म है 'तू झूठी मैं मक्कार' ! कहने को यह रॉमकॉम यानी रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है, पर वास्तव में यह है भेजा फ्रॉय ! यह पंजाबियों की कहानी है रोहन अरोड़ा (रणबीर कपूर) और निशा मल्होत्रा (श्रद्धा कपूर ) की। अब पंजाबियों में घरेलू नाम रखे ही जाते हैं इसलिए रोहन अरोड़ा मिक्की है और निशा मल्होत्रा टिन्नी।
होली-धुलेंडी के मौके पर एक अजीब नाम वाली फिल्म आ रही है। हिंदी की फिल्मों में ऐसे अजीबोगरीब नाम का चलन है जो कभी तो हंसाता है, कभी पकाता है और कभी सोचने पर विवश कर देता है कि क्या नाम का सचमुच इतना अकाल है? दोहरे मतलब वाले घटिया नाम रखने के मामले में दादा कोंडके सबसे आगे थे, लेकिन पहले भी अजीब नाम की फिल्में बनती रही हैं।
अपने 'गवालियर' वाले डॉक्टर तिवारी का छोरा कार्तिक तिवारी (आर्यन) अपनी गिरह के पैसे लगाकर शहजादा बना है, जो तेलुगू में अल्लू अर्जुन की सुपरहिट फिल्म 'अला वैकुंठपुरमलो' की रीमेक है। अब कार्तिक तो ठहरा कार्तिक! वह न तो अल्लू बन सकता है, न सल्लू ! हाँ, दर्शकों को उसने उल्लू बनाने की कोशिश ज़रूर की है। वो भी बना नहीं पाया।
यशराज फिल्म्स की ‘पठान’ में कुछु कुछु नहीं होता, केवल धूम धड़ाका, सूं-सां, फाइटिंग, रेस, मार पिटाई, यातना, बम विस्फोट आदि होते रहते हैं। और वह भी भारत के अलावा यूएई, फ़्रांस, रूस, स्पेन, अफगानिस्तान और साइबेरिया में। इत्ती सुन्दर जगहों पर जाकर हीरो लड़ता है तो अफ़सोस होता है। यशराज वाले पहले नफरत के बाजार में मोहब्बत की फ़िल्में बनाते थे और अब लड़ाई पर उतारू हो गए हैं। गन्दी बात ! यह नाच-गाने पर केंद्रित नहीं, एक्शन पर केंद्रित फिल्म है, जिसमें एक्शन, एक्शन और एक्शन ही है। ऐसे एक्शन सीक्वेंस पहले किसी हिंदी फिल्म में नहीं देखे! अगर आप एक्शन फिल्मों के शौकीन हैं तो निश्चित ही आपको मज़ा आएगा।
अगर आपने दृश्यम देखी होगी तो आप जानते ही होंगे कि 2 अक्टूबर को गांधी व शास्त्री जयंती मनाई जाती है। यह ड्राई डे भी होता है। और इसके अलावा 2 अक्टूबर को ही विजय सालगांवकर पणजी गया था सत्संग में। इसमें परिवार के साथ पाव-भाजी खाई थी और 'पिच्चर' भी देखी थी।
दृश्यम 2 में कहानी आगे बढ़ती है और गड़ा मुर्दा उखाड़ लिया जाता है। फिल्म का बहुप्रचारित ट्रेलर बताता है कि विजय सालगांवकर यानी अजय देवगन ने पुलिस बयान में कैमरे के सामने अपराध स्वीकार कर लिया है लेकिन अंत आते-आते फिल्म की कहानी एक और मोड़ लेती है और गैर इरादतन हत्यारे के लिए दर्शक ताली बजाते हैं। हीरो की एक अपील करती है कि मेरा परिवार मेरे लिए सबकुछ है और मैं उसकी रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता हूँ।
नोबेल शांति पुरस्कार के लिए जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal nehru) का नॉमिनेशन 11 बार किया गया था. 4 बार नेहरू की हत्या के प्रयास किए गए : 1947 में विभाजन के बाद उनकी हत्या की कोशिश हुई जो नाकाम रही। 1955 में एक रिक्शा चालक ने उनकी हत्या की कोशिश की थी लेकिन वह भी कामयाब नहीं हुआ। उसके 1 साल बाद 1956 में तीसरी बार और 1961 में चौथी बार मुंबई में जवाहरलाल नेहरू की हत्या की कोशिश की गई थी। 27 मई 1964 को हार्ट अटैक के कारण जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ.
खाद्य ऊर्जा सुरक्षा और कोविड-19 के बाद स्वास्थ्य के मुद्दे पर केन्द्रित दुनिया के 20 बड़े देशों के सम्मेलन जी20 की अध्यक्षता भारत करने जा रहा है। इसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इंडोनेशिया के बाली शहर में हैं। 16 नवंबर 2022 को जी20 शिखर सम्मेलन के समापन पर इस संगठन की अध्यक्षता का दायित्व आधिकारिक रूप से भारत को सौंपा जाएगा।
रंग बदल दिया राजीव के हत्यारों नलिनी और रविचंद्रन ने, 'विक्टिम कार्ड' खेलना शुरू कर दिया. रिहाई के बाद रविचंद्रन ने कहा कि समय और सत्ता यह तय करती है कि कौन आतंकवादी है और स्वतंत्रता सेनानी? नलिनी को पहले तीन अन्य दोषियों के साथ मौत की सज़ा सुनाई गई थी, लेकिन सोनिया गाँधी की अपील के बाद नलिनी की सज़ा को घटाकर उम्र क़ैद में तब्दील कर दिया गया था. सोनिया ने कहा था कि नलिनी की ग़लती की सज़ा एक मासूम बच्चे को कैसे मिल सकती है, जो अब तक दुनिया में आया ही नहीं है.
भारत दुनिया के 20 बड़े देशों के सम्मेलन जी20 की अध्यक्षता करने जा रहा है। इसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इंडोनेशिया के बाली शहर में हैं। 16 नवंबर 2022 को जी20 शिखर सम्मेलन के समापन पर इस संगठन की अध्यक्षता का दायित्व आधिकारिक रूप से भारत को सौंपा जाएगा।
'ऊंचाई' राजश्री प्रोडक्शन की साठवीं फिल्म है। जाहिर है यह फिल्म भी साठोत्तर लोगों के लिए ही है। शाकाहारी भोजनालय की थाली जैसी सादी, कम मसाले वाली, सात्विक थाली जैसी फिल्म है। आजकल की फिल्मों जैसी प्यार मोहब्बत, फाइटिंग, गाने, डांस और वल्गर दृश्य इसमें नहीं हैं। बिना प्याज लहसुन की इस थाली में कलाकारों के नाम पर अमिताभ बच्चन, डेनी, अनुपम खेर, बमन ईरानी, परिणीति चोपड़ा, नीना गुप्ता आदि हैं।
मेटा इंडिया में टेक स्कॉलर रहे जेड लिंगदोह का मानना है कि एलन मस्क का प्लेटफॉर्म टि्वटर अब फ्री स्पीच के बजाय हेट स्पीच को बढ़ावा देने का काम ज्यादा करेगा। एलन मस्क जिस फ्री स्पीच की बात करते हैं, वह एक तरह से हेट स्पीच के लिए ही फायदेमंद होगा। एलन मस्क ने स्पष्ट किया है कि टि्वटर फ्री फॉर ऑल मीडिया होगा, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि यह घृणा फैलाने वालों के लिए पसंदीदा प्लेटफॉर्म बन जाएगा?
प्रधानमंत्री चुने जाने के एक साल बाद जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिका के दौरे पर थे, तब वे सेन फ्रांसिस्को के पास टेस्ला मोटर्स के मुख्यालय भी गए थे। प्रधानमंत्री की इच्छा थी, वहां काम करने वाले भारतीय मूल के लोगों से मुलाकात और एलन मस्क से भी बातचीत। प्रधानमंत्री ने एलन मस्क को कहा था कि अगर वे इलेक्ट्रिक कार टेस्ला का उत्पादन भारत में करना चाहें, तो उनका स्वागत होगा। प्रधानमंत्री टेस्ला की महंगी टेक्नोलॉजी को इम्पोर्ट करने के इच्छुक नहीं थे, लेकिन प्रधानमंत्री के साथ गया दल इस बात में इच्छुक था कि टेस्ला में सौर उर्जा से चलने वाली बैटरी भारत को उपलब्ध हो सकें।
'मिली' में चूक गए हैं रहमान और जावेद अख्तर! केवल जाह्नवी कपूर के भरोसे है यह फिल्म !
'मिली' एक सर्वाइवल थ्रिलर फिल्म है। जान बचाने का संघर्ष ! फिल्म देखकर लगा कि इसमें एआर रहमान संगीत जगत में अपने सर्वाइवल के लिए काम कर रहे हैं और जावेद अख्तर जबरन गाने लिख लिख कर हाजिरी दिखा रहे हैं। इस फिल्म के ट्रेलर में ही दिखा दिया गया कि हीरोइन किसी फ्रीजर रूम जैसी जगह में कैद हो गई है और अपनी जिंदगी बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। यही कहानी है फिल्म की। अगर आप यह फिल्म नहीं देखेंगे तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
भारत एक फिल्म प्रधान देश है।
4 नवंबर को देश में 23 फिल्में रिलीज हो रही हैं, जिनमें हिन्दी की 7, तेलुगु की 6, मराठी की 5, तमिल की 3 और कन्नड़ की दो फिल्में शामिल हैं। (ओटीटी पर आने वाली फिल्मों की संख्या अलग है)।
राहुल की यात्रा से गुजरात को पैगाम, डीबी लाइव में प्रकाश हिन्दुस्तानी
इस फिल्म का असल के राम सेतु से वैसा ही नाता है जैसा कि मिया खलीफा का बुर्ज खलीफा से होगा। फिल्म में यूपीए सरकार द्वारा प्रस्तावित सेतु समुद्रम परियोजना की तुलना तालिबान द्वारा बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं को उड़ा देने से की गई है। दीपावली पर यह अक्षय कुमार एंड कंपनी का ताजा फ़िल्मी शाहकार है! इसी साल उनकी बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज और रक्षा बंधन आई थी, जो नहीं चली। एक साल में चार-चार फ़िल्में देना कोई आसान काम नहीं है!
डॉक्टर जी (A) 'एडल्ट पिच्चर' है, लेकिन इसमें 'एडल्टों' वाले फूहड़ जोक्स नहीं हैं। इसमें उतना ही एडल्टपना है, जितना मेडिकल कॉलेज में गायनेकोलॉजी विभाग में होता होगा। आम तौर पर पुरुष चिकित्सक गायनेकोलॉजिस्ट यानी स्त्री रोग और प्रसव विशेषज्ञ बनाने से कतराते हैं क्योंकि हमारे यहाँ महिलाएं ऐसे पुरुष डॉक्टरों के पास जाने में हिचकिचाती हैं। उनका धंधा मंदा रहता है। देश के टॉप टेन गायनेकोलॉजिस्ट में आठ स्त्रियां ही हैं।
एमआर की टीऍफ़ पीएस वन का एफआर
इस हेडिंग का मतलब समझ में आया क्या? इसका अर्थ है -- एमआर यानी मणिरत्नम की टीऍफ़ (यानी तमिल फिल्म) पीएस वन (यानी ‘पोन्नियिन सेल्वन' पार्ट वन) का एफआर मतलब फिल्म रिव्यू !
फिल्म का नाम बड़ा कठिन है ! क्यों रखा? अपनी ज्ञानचंदी दिखाने के लिए? मुग़ल-ए-आज़म फिल्म का नाम 'मुगल शहंशाह की मोहब्बत में गिरफ़्तार हुस्न की मलिका" रखा जाता तो? या शोले का नाम 'कानून के रखवाले ठाकुर का खतरनाक दस्युओं से इंतक़ाम' होता तो? कितने लोग जाते फिल्म देखने? इंदौर में एक होटल खुला था, जिसका नाम था 'एमसी स्क्वायर टू', तभी मैंने कहा था कि ये होटल का नाम है या किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट का? दुकान बंद हो जाएगी। हो गई। इतना बड़ा टाटा ग्रुप कोई गेला तो है नहीं, जिसने भारत के सबसे भव्य होटल का नाम दो अक्षरों में 'ताज' रखा। वह भी कोई कठिन सा नाम रख सकता था। पीएस मतलब क्या? प्राइवेट सेक्रेटरी? पोलिस सार्जेंट? पोस्ट स्क्रिप्ट? पैसेंजर स्टीमर?
विक्रम वेधा की सामग्री : ढिशुम ढिशुम धांय धांय सुरर्र ,सुर्र, झीं ईं ईं, पीं ईं, गाना, भड़ भड़, फट्ट फट्ट, सूं ऊँ ऊँ, भम भूम, तड़ तड़, फिर गाना, चोर, पुलिस, गैंगस्टर, एसएसपी, खूंखार क्रिमिनल, स्पेशल टास्क फ़ोर्स, भागम-भाग, नाचना, गाना, कूदना, फांदना, छलांगे मारना, फरार होना, पकड़ा जाना, आतंक फ़ैलाना, नेता, एमएलए, आईजी, भ्रष्ट पुलिसवाले, स्माल लोन बिग प्रॉफिट, एक जैसा अपराध एक जैसा दंड, पुलिसवाले का बेटा पुलिसवाला, क्रिमिनल का बेटा क्रिमिनल ! मर्डर यानी मर्डर और एनकाउंटर मतलब भी मर्डर! गुंडे की मर्यादा, पुलिसवाले का ईमान, इत्तेफ़ाक़ इत्तेफ़ाक़ और इत्तेफ़ाक़! और हाँ, इत्तेफ़ाक़ जैसी कोई चीज नहीं होती! अपराध के पीछे न्याय की मंशा और वर्दी पर अपराध का रंग!
जूनी-पुरानी केसरिया 'लव स्टोरियों' और शानदार VFX का संयोग है ब्रह्मास्त्र ! माइथोलॉजिकल फैंटेसी एडवेंचर फिल्म !अगर आप इसे थ्री डी में देखते हैं तब तो पैसे वसूल हैं वरना यह फिल्म किसी टार्चर से कम नहीं! करीब 400 करोड़ की यह फिल्म VFX के लिए ही याद की जाएगी।
यह फिल्म 'आमिर मियां का मुरब्बा’
बहुत प्रचार किया गया था आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा का। इस फिल्म के नेगेटिव प्रचार या बहिष्कार की अपील का फायदा मिला, लेकिन सिनेमाघर में टिकट खरीदकर पहले दिन, पहला शो देखने के बाद मुझे लगा कि यह फिल्म “आमिर मियां का मुरब्बा’ है। रक्षाबंधन के मौके पर रिलीज होने वाली फिल्म में रक्षा बंधन की कोई बात नहीं है।
अक्षय कुमार की फिल्म रक्षा बंधन का नाम होना चाहिए था -'दहेज का दानव' या 'दहेज की कु परंपरा' अथवा 'जानलेवा दहेज'। फिल्म में यही सब दिखाया गया है। रक्षा बंधन के दिन रिलीज इस फिल्म की मार्केटिंग बहुत ही अच्छे तरीके से की गई है।
तेलंगाना की सरकार ने 35 साल पुराना अपना ही एक आदेश फिर से लागू कर दिया है। इस आदेश के अनुसार सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले चिकित्सक प्राइवेट प्रैक्टिस नहीं कर पाएंगे। यह भी तय किया गया है कि अब सरकारी अस्पतालों के लिए जो भी डॉक्टर नियुक्त होंगे, उन पर यह आदेश लागू रहेगा। तेलंगाना सरकार ने यह भी निर्देश दिया है कि जिन डॉक्टरों को प्रशासकीय ड्यूटी में नियुक्त कर दिया जाता है, उन्हें वहां से हटाकर वापस उनके मूल चिकित्सा कार्य में तैनात किया जाएगा।
गत दो सप्ताह से भारतीय राजनायिकों को इस्लामिक देशों से राब्ता बैठाने में भारी परेशानी और चुनौती का सामना करना पड़ रहा हैं। आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआईसी ) के 57 में से 16 देशों ने भाजपा प्रवक्ता के बयान पर बखेड़ा कर दिया था, जिसके बाद भारत को रक्षात्कम पहल करनी पड़ीं। यह भारत के लिए अच्छा अनुभव नहीं रहा। भारत की मुस्लिम आबादी बांग्लादेश और इंडोनेशिया के बाद सबसे ज्यादा हैं। इस हिसाब से भारत इस्लामिक देशों के संगठन में शामिल होने की योग्यता रखता हैं। यह सच्चाई हैं कि ओआईसी की स्थापना में भारत की प्रमुख भूमिका रही हैं। इतना ही नहीं इस संगठन के बनने के बाद पहली बैठक का नेतृत्व भी भारत ने ही किया था। इस्लामिक देशों के संगठन को लेकर शुरू से दो पेंच रहे हैं। पहला तो यह कि इसका सदस्य वही देश हो सकता है, जिसकी आबादी का बहुमत मुस्लिम हो। दूसरी शर्त यह थी कि भले ही मुस्लिम आबादी बहुमत में न हो, लेकिन उस देश का शासक मुसलमान हैं, तो उसे संगठन का सदस्य बनाया जा सकता हैं।
ख़ास बातें पूर्व उपराष्ट्रपति की
1 ये फ्रिंज एलिमेंट नहीं है. ये पार्टी की आइडियोलॉजी है. ये आज से नहीं कई सालों से चल रही है. 2009 का जो इलेक्शन मेनिफेस्टो है वो पढ़ लीजिए, 2014 मेनिफेस्टो को पढ़ लीजिए उसमें भी यहीं बाते हैं. एक संविधान है वो हमारा धर्म है. इसके आगे जो धर्म को मानते हैं वो प्राइवेट बात है. सरकारी धर्म हमारा संविधान है. ये एक्सीडेंटल बात नहीं है उस पार्टी ने ये आइडियोलॉजी बनाई हुई है और उसका ये ही नतीजा है. जिसने जो कहा वो अनपढ़ नहीं है." अंसारी ने कहा, "ऐसी घटना नहीं होनी चाहिए थी. इस तरह से धार्मिक मामले में गालीगलौज पर उतर आना गलत है,अगर हुआ है ठीक करने में समय लगेगा और इसके तरीके हैं."
2. इंडोनेशिया के बाद हमारे देश का तीसरा नंबर है. हमारे लिए इस्लाम कोई अजूबा नहीं है ये धर्म यहां हजारों सालों से है. हम मिलजुल कर रहे हैं, अचानक जो हुआ है ये क्यों हुआ? क्योंकि किसी एक पार्टी की तरफ से और आइडियोलॉजी की तरफ से ये कहा जा रहा है कि इस्लाम खराब है, इसे मानने वाले भारतीय नहीं है तो सब बातें गलत हैं. हम नागरिक हैं हम आपस में भाई हैं. ऐसा तो किसी दुश्मन के साथ भी नहीं करते.
3. खाड़ी देशों की प्रतिक्रिया जेनिइन थी और होनी भी चाहिए. बात केवल खाड़ी देशों की नहीं है. बात इंडोनेशिया से शुरू होती है और नार्थ अफ्रीका तक जाती है. ऐसी बात कही गई कि हर वह आदमी जो एक धर्म को फॉलो करता है उसे इससे ठेस पहुंची है."
4. आप हमको नागरिक मानते हैं या नहीं मानते? क्या मुसलमानों को बराबरी की फेसेलिटीज मिल रही हैं?
5. हमारी आबादी 14. 5 परसेंट है 20 करोड़ से ज्यादा है , हमर रिप्रेजेंटेशन एप्रोप्रिएट है या नहीं?
ट्रेलर देखकर ही दर्शक समझ गए कि पृथ्वीराज और धाकड़ नहीं देखना! मूर्ख नहीं है दर्शक !
क्यों फ्लॉप हुई सम्राट पृथ्वीराज, क्यों फ्लॉप हुई धाकड़
ट्रेलर नहीं दिखाते तो चल जाती सम्राट पृथ्वीराज ! ट्रेलर देखकर ही समझ गए दर्शक कि यह फिल्म नहीं देखना है, बकवास है यह फिल्म !
भारतीय जनता पार्टी वैसे तो हमेशा ही चुनाव के मोड में रहती है, लेकिन मोदी सरकार के 8 साल पूरे होते ही वह फिर से 2024 की तैयारियों में जुट गई है। भारतीय जनता पार्टी के 2 राष्ट्रीय प्रवक्ताओं नुपूर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल के खिलाफ कार्रवाई करके सरकार ने यह बताने की कोशिश की है कि यह एक ऐसी सरकार है, जो सभी के लिए कार्य कर रही है। आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाली प्रवक्ता के खिलाफ कार्रवाई से भारतीय जनता पार्टी में भी हलचल बढ़ गई है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी अब फूंक-फूंककर कदम रखने की कोशिश कर रही है।
करीब 300 करोड़ के खर्च से बनी सम्राट पृथ्वीराज रिलीज़ हो गई है। अक्षय कुमार कितना न्याय कर पाए हैं सम्राट की भूमिका में?
केन्द्रीय गृह मंत्री और कई राज्यों के मुख्यमंत्री इस फिल्म को टैक्स फ्री करने की घोषणा कर चुके हैं इसका फिल्म के धंधे पर क्या असर पड़ सकता है? दर्शक क्या कह रहे हैं इस फिल्म पर?
प्रसिद्ध फिल्म लेखक-समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज और प्रकाश हिंदुस्तानी की चर्चा
सम्राट पृथ्वीराज में अक्षय कुमार सम्राट पृथ्वीराज के अलावा सबकुछ लगते हैं। राजेश खन्ना के दामाद, टि्वंकल खन्ना के पति, खिलाड़ी, छिछौरे हीरो की तरह। फिल्म में अक्षय कुमार से ज्यादा निर्देशक चन्द्रप्रकाश द्विवेदी की झलक मिलती हैं। संजय दत्त इस फिल्म में पृथ्वीराज के काका के बजाय मुन्ना भाई ही लगे। 2017 की मिस वर्ल्ड मानुषी छिल्लर ने फिल्म में अपनी छाप छोड़ी हैं। अक्षय कुमार अपनी बार-बार खिलाड़ी की छवि लेकर ही आते हैं। आमिर खान जैसा धीरज उनमें नहीं हैं।
अशोक ओझा 3 दशकों से अमेरिका में हिन्दी शिक्षण को बढ़ावा देने में जुटे हैं। इन दिनों वे फुलब्राइट हेस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहे हैं और उसी संदर्भ में भारत भ्रमण पर हैं। हिन्दी युवा संस्थान के संस्थापक के रूप में उन्होंने अमेरिका में हजारों अमेरिकी और एनआरआई युवाओं को हिन्दी सीखने के लिए प्रेरित किया हैं। वे अमेरिका में हिन्दी के राजदूत कहे जा सकते हैं। वे और उनका संगठन अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन भी करता हैं और आगामी अक्टूबर में ऐसा पांचवां सम्मेलन न्यूयॉर्क में करने जा रहे हैं।
अशोक ओझा न्यू जर्सी के पत्रकार और शिक्षक हैं, जहां वे दो NGO संचालित करते हैं - युवा हिन्दी संस्थान और वैश्विक स्तर पर हिन्दी संगम फाउंडेशन। दोनों ही संस्थाएं हिन्दी के प्रचार के लिए समर्पित हैं.
जयंती रंगनाथन कहानीकार और उपन्यासकार हैं और वे हर विधा में प्रयोग करती रहती हैं। उनका नया उपन्यास ‘शैडो’ एक अलग तरह का उपन्यास हैं, जिसमें मुख्य पात्र के साथ बहुत सारे पात्र हैं। कहानी में कहानियां और उन कहानियों में भी कहानियां। कुल मिलाकर यह एक सस्पेंस थ्रीलर का काम करता हैं।
संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के अंतिम परिणाम आते ही यह बात फिर चर्चा में आ गई है कि किस तरह भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में बदलाव हो रहा हैं। ये आरोप फिर से लगने लगे हैं कि वर्ग विशेष के लोगों को प्राथमिकता मिली हैं। पिछले दरवाजे से प्रशासकीय सेवाओं में भर्ती का मुद्दा भी फिर चर्चा में हैं। भारत की सबसे प्रतिष्ठित सेवाओं में प्रशासकीय सेवाओं का महत्व किसी से छुपा नहीं हैं। क्या यह उपलब्धि चयनित युवाओं की व्यक्तिगत होती हैं या इसके पीछे कोई और बड़ी ताकत या शक्ति होती हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 28 मई को गुजरात के अटकोट में एक रैली को सम्बोधिक करते हुए कहा था कि हम गांधी जी के सपनों का भारत बनाने के कार्य में आठ साल से जुटे हैं। गांधी जी चाहते थे कि गरीबों, दलितों, पीड़ितों, आदिवासियों और महिलाओं को अधिक अधिकार मिले। हमारी सरकार इसी के लिए कार्य कर रही है। स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाएं हमारी सरकार की प्राथमिकता है और भारतीय संस्थानों से हम अपनी जरूरतों की पूर्ति में लगे हैं। इसके बाद की रैली में उन्होंने गांधीजी के साथ साथ सरदार पटेल का भी जिक्र किया और उनके सपनों के भारत की बात भी कही। ये दोनों ही नेता गुजरात के थे, जहाँ के मोदी भी हैं।
कोई भी राजनीतिक पार्टी परिवारवाद से अछूती नहीं हैं। राज्यसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की घोषणा होते ही यह तथ्य फिर जगजाहिर हो गया। परिवारवाद के खिलाफ बयान देने में तो कोई भी पार्टी पीछे नहीं हैं। आखिर दूसरी प्रतिभाओं को मौका क्यों नहीं मिलता?
प्रसिद्ध वक्ता और राजनीतिक कार्यकर्ता मृणाल पंत और प्रकाश हिन्दुस्तानी की बातचीत
जैन धर्म की पहली आचार्य पद प्राप्त करने वाली साध्वी म.सा. चंदनाजी से मिलना एक विलक्षण अनुभव रहा। साध्वी जी को हाल ही में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया। 86 वर्ष की उम्र में भी वे मानव सेवा के कार्य में सतत् जुटी हैं। इंदौर प्रवास के दौरान उनसे निजी मुलाकात प्रेरणादायी रहीं। कई विषयों पर उन्होंने अपनी बेबाक राय व्यक्त की।
गिरीश मालवीय आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ, लेखक और पत्रकार हैं। अर्थव्यवस्था को लेकर वे लगातार लिखते रहे हैं। उनकी कई संभावनाएं सच में बदली है और कई आशंकाएं विकराल रूप में सामने आई हैं।
पिछले 8 साल में भारतीय अर्थव्यवस्था कहां पहुंच चुकी है! इस चर्चा में अर्थव्यवस्था से जुड़े सवालों को जानने और उसके परिणामों को समझने की कोशिश होगी।
आप भी अपनी जिज्ञासा और टिप्पणी कमेंट बॉक्स में करके चर्चा में शामिल हो सकते हैं।
2014 से अब तक भारत की अर्थव्यवस्था कहां पहुंची। जीडीपी, रोजगार, महंगाई, मुद्रा स्फीती, प्रतिव्यक्ति आय, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के क्षेत्र में हम कहां पहुंचे? एफडीआई के भरोसे शेयर बाजार का क्या हाल है और डॉलर कितना ऊंचा हो गया है? 8 साल पहले जिन वादों के साथ सरकार आई थीं, वे वादे अब कहां है?
आर्थिक क्षेत्र में लगातार लिखने वाले और अर्थव्यवस्था को भीतर तक समझने वाले पत्रकार आलोक ठक्कर से बातचीत।
मशहूर उर्दू साहित्यकार और कथाकथन के संस्थापक जमील गुलरेज़ विज्ञापनों की दुनिया से जुड़े रहे हैं। उन्होंने देश की नामचीन विज्ञापन एजेंसियों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया हैं और विज्ञापन की फील्ड में नए कॉपीराइटर्स तैयार करने के लिए AAAI (एडवारटाइिंग एजेंसीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया) संगठन के लिए कई कोर्सेस संचालित किए हैं।
उनके शिष्य देश की बड़ी एजेंसियों में शीर्षस्थ पदों पर हैं। अब विज्ञापनों की दुनिया कैसी हैं, क्या-क्या बदलाव हुए हैं और हो रहे हैं? डिजिटल क्रांति ने विज्ञापनों की दुनिया को कैसे बदला हैं?
राहुल गांधी अपेक्षाकृत युवा हैं, पढ़े लिखे हैं, सक्रिय हैं, कांग्रेस के सांसद हैं; वे जो भी कहते हैं चर्चा में आ जाता है! जो करते हैं उस पर सवालों की बौछार होने लगाती है, मीम्स बनाये जाते हैं, तंज़ किये जाते हैं, लेकिन उनकी हर बात पर सरकार प्रतिक्रिया अवश्य देती है !
प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, स्वास्थ्य मंत्री... जो भी बात कहते हैं, कहीं न कहीं राहुल गांधी का सन्दर्भ आ ही जाता है। देश का एक बड़ा वर्ग मानता है कि राहुल गांधी बहुत नेकदिल और सरल हृदय शख्स हैं, इसीलिए वे राजनीति में मिसफिट हैं! खुद उनकी पार्टी के कई वरिष्ठ लोग उन्हें नेता कहते हैं, लेकिन उनके निर्देश नहीं मानते।
क्या राहुल गांधी निरे आदर्शवादी हैं या वर्तमान दौर की राजनीति के उपयुक्त नहीं हैं? क्या वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पासंग नहीं बैठते? क्या अमरिंदर, ज्योतिरादित्य और हार्दिक पटेल आदि की तरह पूरी कांग्रेस राजनीति के अवसाद में है ?
मध्यप्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव की तैयारियां की जा रही हैं। अध्यक्ष और महापौर के चुनाव अप्रत्यक्ष कराए जाने पर कमलनाथ सरकार की नीति को ही वर्तमान शिवराज सिंह सरकार बरकरार रखा हैं। इसकी क्या वजहें हैं? क्या असर पड़ेगा इसका चुनाव पर? क्या अप्रत्यक्ष रूप से चुना गया महापौर और अध्यक्ष उतना शक्ति संपन्न नहीं होगा? द सूत्र के एडिटर इन चीफ आनंद पाण्डे और मीडिया में विभिन्न पदों पर रहें कमलेश पारे से विमर्श।
केन्द्र सरकार द्वारा पेट्रोल और डीज़ल के दाम में कमी करने से लोगों ने मामूली राहत महसूस की है, लेकिन वह काफी नहीं है। सरकार ने यह कदम अनायास नहीं उठाया। महंगाई इतनी उच्च पहुँच चुकी है कि आम जनता के लिए वह असहनीय हो चुकी है। पिछले सप्ताह ही वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने जो आंकड़े जारी किये थे उसके अनुसार अप्रैल में थोक मूल्य सूचकांक 15.1 प्रतिशत ऊपर रहा। यह थोक मूल्यों की महंगाई का चरम कहा जा सकता है। यह सूचकांक पिछले 11 साल में कभी इतना ज्यादा नहीं रहा। उस पर भी खास बात यह है कि पिछले 13 महीनों से थोक मूल्य सूचकांक लगातार डबल डिजिट में बना हुआ है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार थोक मूल्य सूचकांक वास्तव में 11 वर्ष नहीं, बल्कि 30 वर्षों में सबसे ज्यादा है। हालांकि आरबीआई इसकी पुष्टि नहीं करता।
जम्मू-कश्मीर की स्थानीय पार्टियों ने राज्य के परिसीमन का विरोध करते हुए इसे भारतीय जनता पार्टी की मनमानी करार दिया है। इस परिसीमन के बाद जम्मू-कश्मीर के राजनैतिक समीकरण बदल जाएंगे। महबूबा मुफ्ती तो साफ-साफ कह रही हैं कि यह तो बीजेपी का विस्तार का कार्यक्रम हैं। परिसीमन में जनसंख्या के आधार की अनदेखी की गई। हमें इस परिसीमन पर भरोसा नहीं है। हम इसे रिजेक्ट करते हैं। महबूबा ने यह भी कहा कि यह परिसीमन तो अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का एक एक्सटेंशन मात्र हैं।
जबलपुर में दुष्कर्म के आरोपी को जमानत पर जेल से बाहर आने के बाद शहर भर में ‘भैया इज बैक’ के पोस्टर लगवाना महंगा पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी की जमानत रद्द कर हुए वापस जेल भेजने का आदेश सुना दिया। चीफ जस्टिस एनवी रमना की बेंच ने पीड़िता की याचिका पर फैसला सुनाते हुए आरोपी को एक हफ्ते में पुलिस के सामने सरेंडर करने का आदेश दिया।
बॉलीवुड के बिना साउथ का काम नहीं चल सकताहाल के दिनों में दक्षिण भारत की 3 फिल्में क्या सुपरहिट हुई, मुंबई फिल्म उद्योग यानी बॉलीवुड का मजाक उड़ाया जाने लगा हैं। कहा जाने लगा कि अब बॉलीवुड के दिन गए। अगर किसी को यह लगता है कि अब बॉलीवुड का महत्व जीरो हो गया है, उन्हें नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने बढ़िया जवाब दिया है। नवाजुद्दीन ने कहा कि अगर हिन्दी फिल्मों का महत्व खत्म हो गया, तो दक्षिण भारतीय फिल्मों को हिन्दी में क्यों डब करके रिलीज करते हो?
कोई कुछ भी कहे आरआरआर जैसी फिल्म को भी अजय देवगन और आलिया भट्ट की जरूरत पड़ती हैं। केजीएफ को संजय दत्त और रवीना टंडन की आवश्यकता होती है। दक्षिण की सभी सुपरहिट फिल्मों के वितरकों की छानबीन की जाए, तो पता चलेगा कि उनकी फिल्में वितरित करने वाले वे ही है, जो बॉलीवुड की फिल्में रिलीज करते हैं।हाल ही में लगी पुष्पा, आरआरआर और केजीएफ-2 में केवल आरआरआर ही तर्कपूर्ण फिल्म थी। पुष्पा और केजीएफ-2 की कहानी बॉलीवुड की किसी भी घटिया फिल्म की कहानी से बदतर कही जाएगी।
बाहुबली भी एक तरह से कहानी के मामले में दिवालिया ही थी। बाहुबली और आरआरआर में हिन्दुत्व का छोंक मारा गया और लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़काने की कोशिश भी की। आज के माहौल में यह फॉर्मूला चल गया। बाहुबली में भगवान शिव की भक्ति और आरआरआर में राम और सीता की जोड़ी बनाने की जो कोशिश की गई, वह धार्मिक भावनाओं को बनाने की ही कोशिश थी।हाल ही में केजीएफ-2 को लेकर मीडिया में बहुत खबरें आ रही हैं। फिल्म की कहानी बेतुकेपन की हद तक फॉर्मूला हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि केवल 15 लाख लोगों का सरगना माना जाने वाला हीरो भारत जैसे विशाल देश के लिए चुनौती बन जाता है, जिससे निपटने के लिए प्रधानमंत्री को आर्मी, नेवी और एयर फोर्स तीनों को झोंक देना पड़ता है। इसके बाद भी हीरो को कुछ ऐसा दिखाया गया, मानो वो हीरो न होकर भगवान का कोई रूप हो।
जय संतोषी मां से लेकर हाल ही में रिलीज हुई फिल्म दंगल तक। 1975 में शोले रिलीज हुई थी, जिसके 10 करोड़ टिकिट बॉक्स ऑफिस पर बिके थे। उस दौर में सिनेमा के टिकिट के दाम 1-2 रूपये हुआ करते थे। मल्टीप्लेक्स बने ही नहीं थे। आज के दौर में अगर 10 करोड़ सिनेमा टिकटों का औसत मूल्य 200 रुपये प्रति टिकट भी मानें, तो 2000 करोड़ का बिजनेस यह फिल्म कर चुकी थी।
47 साल पहले भारत में सोने का दाम था 540 रूपये प्रति तोला। आज सोना करीब 50 हजार रूपये तोला हैं। इस फिल्म ने 35 करोड़ रुपये का बिजनेस किया था। अंदाज लगाया जा सकता है कि आज की तारीख में यह बिजनेस 3000 करोड़ का होगा।2001 में रिलीज गदर-एक प्रेम कथा के भी करीब 10 करोड़ टिकट बिके थे। इस फिल्म ने पहले ही हफ्ते में 9 करोड़ 14 लाख रुपये का बिजनेस किया था। दूसरे हफ्ते में यह बढ़कर 9 करोड़ 69 लाख हो गया। 11 हफ्ते में इस फिल्म ने 76 करोड़ 65 लाख रुपये अर्जित किए थे और इसका वर्ल्डवाइड कलेक्शन 132 करोड़ 60 लाख रूपये था। तत्कालिन सोने के भाव की तुलना अगर आज से करें, तो इस फिल्म का कारोबार भी 1600 करोड़ रुपए कहा जा सकता है। बॉक्स ऑफिस इंडिया के अनुसार 2017 तक यह फिल्म 486 करोड़ रूपए कमा चुकी हैं।