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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (16 अगस्त 2014)

15 अगस्त 1975 को शोले रिलीज़ हुई थी और तब से लगातार उसका जादू बरकरार है. कई बार 'शोले जैसी' दूसरी फिल्म बनाने की कोशिशें हुईं, पर 'शोले' जैसी कोई और फिल्म नहीं बन सकी. शोले में हिंसा, कॉमेडी, एक्शन, संगीत, इमोशन का ऐसा तालमेल था जो बेमिसाल था. यहाँ मैने 'शोले' पर एक अलग मजाकिया लहजे में लिखा है 

ये मेरी नई रिसर्च है। 'शोले' परफैक्ट फेमिली पिक्चर थी. परदे पर तो फेमिली थी ही, पीछे भी फेमिली ही फेमिली थी. कुछ पहले से थी, कुछ बाद में बनी. लोग ग़लत कहते हैं कि 'शोले' हिंसा प्रधान फिल्म थी।

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (21 मई 2014)

कुछ दिन से ज्ञानचंद लोग बहुत बिज़ी हैं. चुनाव के आसपास उनका सीजन रहता है। वे ही सवाल खड़ा करते हैं और वे ही जवाब भी तैयार रखते हैं. जो पहले कहते थे कि एनडीए को बहुमत नहीं मिलेगा, अब कह रहे हैं--देखा ले आये न मोदी अपने बूते पर भाजपा का बहुमत.

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (09 अगस्त 2014)

आजकल अख़बार आते ही ब्लड प्रेशर बढ़ने लगता है. पता नहीं क्या-क्या खबरें होती हैं उनमें! ऐसा नहीं है कि पहले वैसी 'खबरें' नहीं घटती होंगी, लेकिन पहले उन्हें जगह नही दी जाती थी, बल्कि उन खबरों को प्रमुखता मिलती थी जिनका सरोकार आम लोगों से होता हो. आज ही सुबह अख़बार का पन्ना खोला तो मेरे मुँह से यही निकला...तो मैं क्या करूँ? अब आप ही बताइए 'अर्जुन कपूर अपनी रोमानिया ट्रिप को लेकर बहुत रोमांचित हैं' तो मैं क्या करूँ? अगर विराट कोहली को पंजाबी गानों का शौक है तो इसमें न्यूज़ क्या है?

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (10 मई 2014)

इंदौर पुलिस के अधिकारियों ने रात्रिकालीन शिफ्ट करने वाले जवान गणपत सिंह को निलंबित कर दिया है। जांच के बाद यह काम किया गया। गणपत सिंह पर आरोप यह था कि उसने अपराधों की रोकथाम में मदद की थी। गणपत सिंह जैसे और भी पुलिसकर्मी हो तो इंदौर में अपराध पूरी तरह खत्म हो सकते है।

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (02 अगस्त 2014)

आम बजट को संसद में पेश करने के काफी पहले से मीडिया में खबरें आती रहती हैं--बजट में होगा, ऐसा होगा आम बजट, बजट सुधरेगा देश की आर्थिक हालत; आदि आदि। आजकल बजट के साथ ही टीवी पर ऐसे ऐसे एक्सपर्ट पंचायत करने बैठ जाते हैं, जो बजट को पढ़े देखे बिना ही ज्ञान बांटने लग जाते हैं। जैसे बजट, बजट न हुआ; सलमान खान की 'किक' हो गई! बजट के आने से पहले हुई तमाम चर्चाएं भुला दी जाती हैं।

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (19 अप्रैल 2014)

नाम होता है तो नामा भी मिलने लग जाता है, इसीलिए नाम कमाने की बेताबी हर जगह दिखाई देती है। हर कोई खबरों का खिलाड़ी बना हुआ है। खबरों के खिलाड़ी हर क्षेत्र में बहुत सक्रिय हैं। ऐसे लोगों की भारी भीड़ है, जो खबरों में बने रहने के लिए उतावले हैं। खबरों में बने रहने के लिए नेता और अभिनेता तो मरे ही जा रहे हैं, सामाजिक कार्यकर्ता और बिजनेसमैन भी उतावले हैं। खिलाड़ी और मॉडल इस लाइन में पहले से हैं ही। 

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (26 जुलाई 2014)

लोकसभा की स्पीकर सुमित्रा ताई की दरियादिली के कारण मुझे भी इंदौर के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ लोकसभा और राज्य सभा कार्यवाही देखने का सौभाग्य मिला। जितना विलक्षण अनुभव लोकसभा की कार्यवाही रहा, उससे ज़्यादा विलक्षण रहा कार्यवाही को देखने गए इंदौरियों को देखने का। अब अपनी ताई इंदौर की हैं तो उनके स्टॉफ में भी इंदौरी हैं ही। इन इंदौरी भियाओं ने अपन लोगों की भोत मदद करी। अच्छा लगा कि दिल्ली में भी अपनेवाले लोग हेंगे।

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (12 अप्रैल 2014)

मोहब्बत और चुनाव सत्य है। शादी तथा सरकार मिथ्या !

चुनाव और मोहब्बत में बहुत समानता है। दोनों के लिए वयस्क होना ज़रूरी है। दोनों में कामयाबी पाना आसान नहीं। दोनों में आदमी संयोग से ही घुसता है। दोनों में आदमी अपनी इच्छा से नहीं पड़ता, दोनों ही गले पड़नेवाली चीजें हैं; और गले पड़ जाए तो छूटती नहीं। दोनों में लोगों को नींद कहाँ आती है? दोनों में लोग तमाशाई होते हैं, मददगार नहीं।

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (19 जुलाई 2014)

आजकल महंगाई इतनी ज्यादा है कि बगैर पीपीपी मॉडल के मोहब्बत भी संभव नहीं ! पीपीपी या पी3 मॉडल का अर्थ है पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप ! पब्लिक चुनी हुई सरकार का पब्लिक सेक्टर भी जब प्राइवेट पार्टनरशिप से काम कर रहा है तो आम आदमी की क्या औकात? सरकार रेल चलाने में पीपीपी से काम चला रही है, तेल निकालने में पीपीपी का उपयोग हो रहा है, सड़कें, एयरपोर्ट और बंदरगाह बनाने में प्राइवेट सेकटर जा रही है तो महंगाई के मारे आम आदमी के लिए और क्या विकल्प है?

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (5 अप्रैल 2014 को प्रकाशित)

इंदौर में लोकसभा के लिए मतदान में तीन हफ्ते भी हैं, लेकिन अखबार और टीवी चैनल के अलावा कहीं माहौल ही नहीं है। एक वह जमाना था जब चुनाव के महीने-डेढ़ महीने पहले शोर-गुल शुरू हो जाता था। तांगे- ऑटो पर लाउड स्पीकर लग जाते थे, दिन-रात प्रचार चलता रहता था। जीतेगा भाई जीतेगा...फलानेजी संघर्ष करो, हम आपके साथ हैं... देश का नेता कैसा हो .... जैसा हो.... जैसे नारे जगह-जगह सुनने को मिलते थे। बच्चे चुनाव प्रचार में ज्यादा धूम मचाते। तरह-तरह की टोपियां, बिल्ले, चुनाव चिह्न के कटआउट बंटते।

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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (12 जुलाई 2014)

अब गुंडागर्दी के नए अड्डे बन गए हैं और उस गुंडागर्दी को 'कानूनीÓ रूप दे दिया गया है। पहले सिनेमाघरों की टिकट खिड़की के आसपास गुंडे होते थे, जो सिनेमा टिकट ब्लैक करते थे। मल्टीप्लेक्स के दौर में अब टिकट खिड़की के पास टिकट ब्लैक में नहीं बिकता, व्हाइट में ही लूट है। यह लूट ऑफिशियल हो गई है। पहले शुक्रवार को नई फिल्म लगते ही भीड़ लग जाती थी, कुछ ही लोग सारे टिकट खरीद लेते और फिर दस-बीस-पचास रुपए ज्यादा में टिकट बेच देते थे। पुलिस उनको पकड़ भी लेती थी, क्योंकि वह गैरकानूनी था।

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वीकेंड पोस्ट के 29 मार्च 2014 के अंक में मेरा कॉलम

अगले तीन-चार हफ्ते इलेक्शन टूरिज्म के नाम होंगे। चुनाव के साथ ही नेता, क्रिकेटर और फिल्मी हीरो हीरोइनों को देखने सुनाने का अद्भुत संयोग! अचानक यूपीवालों की बन आई है। काशी यानी वाराणसी आकर्षण का फिर केंद्र बन गया है। ताजमहल के लिए आगरा और कबाब के लिए लखनऊ फेमस था ही, अब काशी-मथुरा का नाम लिया जा रहा है।

इलेक्शन टूरिज्म का सीजन फिर आ गया है। अगले तीन-चार हफ्ते इलेक्शन टूरिज्म के नाम होंगे। चुनाव के साथ ही नेता, क्रिकेटर और फिल्मी हीरो हीरोइनों को देखने सुनाने का अद्भुत संयोग!

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