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इंदौर में कई जगह अड्डेबाज़ी होती है उसमें से एक अड्डा है प्रेस क्लब के सामने कमिश्नर ऑफिस परिसर में इंडियन कॉफ़ी हाउस के 'इराक' का. 'इराक' कहते हैं 'इंदौर राइटर्स क्लब' को. करीब दो साल से हर रविवार 11 बजे से यहाँ जमावड़ा हो जाता है लेखकों, पत्रकारों, रंगकर्मियों, चित्रकारों, बुद्धिजीवियों का. 'सदस्य' यहाँ अपनी रचनाएँ सुना सकते हैं, उपलब्धियों की बात कर सकते हैं, अखबारों के संपादकीय पर बेबाक़ी से 'अपनी पाठकीय' में संपादकों की ऐसी-तैसी कर सकते हैं, ट्रम्प से लेकर दादा दयालु तक और 'पेलवान' से लेकर 'मामा' तक के बारे में 'बेसेंसर' बेख़ौफ़ राय रख सकते हैं, बात कर सकते हैं नामवर सिंह की 'आलोचना की आलोचना' और अशोक वाजपेयी की अफसरी-कविता, धर्मवीर भारती के सैडिस्ट स्वभाव से लेकर गगन गिल की युवावस्था तक ! ढाई-तीन घंटे तक यहाँ एक से बढ़कर एक मौलिक विचारों, प्रतिक्रियाओं, समीक्षाओं, गालियों, लतीफ़ों की गंगोत्री बहती रहती है. कॉफी हाउस खाली करने के बाद भी जब पेट नहीं भरता, तब सामने के पेड़ (क्षमा करें, वह सामान्य पेड़ नहीं, महाबोधि वृक्ष है) के चबूतरे पर ज्ञान-गंगोत्री बहाई जाती है!

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'इराक' के बहुत सारे नियम हैं -- पहला तो यह कि कोई नियम नहीं है! संस्था में सिर्फ़ सदस्य हुआ जा सकता है, पदाधिकारी नहीं; क्योंकि पदाधिकारी कोई है ही नहीं और न हो सकता है! कोई आवेदन, फ़ीस, सदस्यता नहीं है. बैठक के बीच में से आप कभी भी उठकर जा सकते हैं और कभी भी आ सकते हैं। बैठक शुरू होने के एक - डेढ़ घण्टे बाद भी! आप वहां जो कॉफी / चाय पीयें तो उसका भुगतान आप ही को करना है, कोई दूसरा आपकी तरफ से भुगतान नहीं कर सकता और न ही आप दूसरों का बिल चुका सकते हैं। बैठक में अखबारों के रिपोर्टरों को बुलाया नहीं जाता, वे चाहें तो रिपोर्टिंग के लिए आ सकते हैं; कितनी भी महत्वपूर्ण चर्चा हो, उसका प्रेस नोट कभी भी नहीं भेजा जाता और न कभी भेजा जायेगा. कई कॉफी हाउस वालों ने न्यौता दिया कि बैठक हमारे यहाँ करो, बिल भी नहीं देना होगा -- लेकिन 'इराक' की टीम को यह नागवार है. कोई भी त्यौहार हो, हड़ताल, बंद, आंदोलन हो -- रविवार की यह बैठक होकर रहती है -- चाहे दो-तीन सदस्य ही क्यों न हो !

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इसी कॉफी हाउस में रोजाना, (जी हाँ रोजाना) शाम को 'सचेतक कॉफी हाउस क्लब' के लोग बरसों से मिलते हैं. यह बहुत ही उदार विचारधारा के लोगों का अड्डा है और इसकी 'सदस्यता' करीब सौ तक जा पहुंची है. इस अड्डे के लोग हर महीने 'गोठ' (पार्टी) करते हैं. साहित्यिक कीड़े के रूप में पहचाने जाने वाले ऋतुचक्र पत्रिका के विक्रम कुमार अपने पैसे से हर महीने एक साहित्यिक आयोजन करते हैं, जो घड़ी की सुइयों के हिसाब से चलता है. विक्रम कुमार न मोबाइल रखते हैं, न कोई वाहन. वे काग़ज़ की चिट्ठियों पर अब भी भरोसा करते हैं और भारतीय डाक विभाग पर उनकी आस्था अभी भी जीवित है. इंदौर के नेहरू पार्क में भी कविगण बिना नागा हर रविवार को काव्य गोष्ठी करते हैं.

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इंदौर में और भी ऐसे अनेक ठीये हैं जो बाग़-बगीचों और चाय की गुमटियों के गिर्द विचारों की रोशनी बिखेरते रहते हैं. ये ठीये ही इंदौर को इंदौर बनाते हैं, इंदौर का अर्थ कोई केवल राजबाड़ा और छत्री, जलेबी और पोहे, आईआईटी और आईआईएम ही न समझे.

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वर्चुअल दुनिया में जीनेवालों को चाहिए कि ऐसे ठीयों पर भी जाएँ। वे भी देखें तो हर शहर, हर कस्बे और हर गाँव की ज़िन्दगी की जुम्बिश!

26 Feb. 2017

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