आज विनीत कुमार जी से बड़ी दिलचस्प बातें हुई। न्यूज़ चैनलों के 'कट्टर दर्शक' दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। वे मीडिया विश्लेषक, टीवी पैनलिस्ट, लेखक, ब्लॉगर और स्तंभकार हैं। उनकी किताब 'मंडी में मीडिया' उनके गहन शोध के चलते बहुत चर्चित हुई थी।
मुख्य बिंदु :
-लोग चैनल की पूरी न्यूज़ नहीं देखते, केवल सोशल मीडिया की क्लिप्स देखकर धारणा बना रहे हैं!
-अंजना ने लगातार फेक न्यूज़ दिखाया, उस पर क्या हुआ? क्या डिप्लोमेट से ऐसे बात करते हैं? यह अफसोस की बात है कि इतनी मशहूर एंकर में मैनर्स नहीं है। यह कांडिफेंस कहाँ से आता है? क्या चैनल से सफाई दी?
- हमारा दर्शक बदल रहा है, लेकिन ऑडियंस बिहेवियर पर कोई शोध या अध्ययन हुआ?
- टीवी न्यूज लोगों को मनोरोगी बना रहे हैं।
- टीआरपी का जो दबाव न्यूज़ चैनलों पर है, वैसा ही दबाव सोशल मीडिया में लाइक्स, शेयर, कमेंट्स और सब्सक्राइबर्स का भी हो गया है। यह बीमारी है। केवल और केवल कंटेंट पर आइये। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस कार्यक्रम को कितने लोग देख रहे हैं। संख्या का खेल खतरनाक है।
-आखिर दूरदर्शन और आकाशवाणी में हमें किस तरह एक दर्शक और श्रोता के रूप में प्रशिक्षित किया! वे अपनी जिम्मेदारी कितनी गंभीरता से निभाते थे! मेरे परिवार में कोई किसान नहीं है लेकिन हमने किसानों के, सैनिकों के कार्यक्रम भी देखे। दूरदर्शन ने हमें दर्शक बनाया।
-अब जो निजी समाचार चैनल हैं, उनका अपने दर्शकों के प्रति कोई दायित्व नहीं है?
-न्यूज़ एंकर, न्यूज़ एंटरटेनर का काम करें, कोई आपत्ति नहीं; पर वे दर्शकों के खिलाफ जा रहे हैं। वे संवैधानिक दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहे। वे कार्टून और मीम्स से भी फ़ायदा कमाते हैं। उनका डिजिटल स्पेस बढ़ जाता है।
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