राजेंद्र माथुर के बारे में गुंजन सिन्हा
१९८६ में स्व. राजेंद्र माथुर ने नवभारत टाइम्स, पटना, के लिए युवाओं की एक टीम चुनी और उससे कहा कि “हिंदी पत्रकारिता की मशाल हम यहाँ तक ले आये हैं. अब ये मशाल हम आपको सौंपना चाहते हैं, लेकिन हमे ज्यादा ख़ुशी होगी अगर आप इसे हमसे छीन सकें.”
हम नहीं छीन सके. हम क्या कोई नहीं छीन सका. उन्हें दिवंगत हुए २७ बरस बीत गए और उनके जाने के चार बरसों के भीतर नवभारत टाइम्स पटना बंद कर दिया गया. उन्होंने हमें जो स्नेह भरी चुनौती दी थी, वो ३२ साल बाद भी अनुत्तरित है.
पूरे देश में कोई ऐसा संपादक पत्रकार नहीं हुआ जो माथुर साहब की वह मशाल थाम सके. नभाटा की उस टीम का हर मोती बिखर गया. लेकिन एक बार फिर उस टीम के सदस्यों ने एक दूसरे को खोजा है, इस सोच के तहत कि भले हम राजेंद्र माथुर न हो सके, न उनके वारिस हो सके, लेकिन हमने उन्हें देखा तो था, पढ़ा तो था, उनके निर्देश तो सुने थे. पत्रकारिता के क्या मानदंड, क्या आदर्श होने चाहिए, उनसे जाना तो था. तो क्यों नहीं जो उन्होंने कहा था, देश दुनिया और समाज के बारे में, कम से कम वही हम सभी लोगों को बताएं. उन मोतियों, बिम्बों, विचार-विन्दुओं को बिखेरेते जाएँ जो उनके लेखन में हैं. शायद किसी पपीहे को स्वाति-बूंद की प्रतीक्षा हो. शायद कहीं कोई बीज किसी उर्वर भूमि में पड़ जाये और आने वाली पीढ़ियों में कोई ऐसा निकले जो माथुर साहब की वह मशाल एक बार फिर थाम सके. इतना तो तय है कि उनकी टिप्पणियां, उनके बिम्ब हर पाठक को आज भी एक दृष्टि, एक समझ दे सकते हैं. उदाहरण के लिए, अगर आप पूरी बीसवीं सदी को दस मिनट में समझना चाहते हैं, तो उनका लेख ‘बूढ़ी सदी का नया वर्ष’ पढ़ लीजिये जो उन्होंने १९७० में लिखा था. .
“राजेंद्र माथुर की मशाल” शीर्षक से मैं यहाँ दो तरह की सामग्रियां प्रस्तुत करूँगा. एक तो उनके चुनिन्दा उद्धरण और दूसरे, किसी विषय पर नभाटा पटना परिवार के विमर्श/स्टैंड.
बहुत से युवा और दृष्टि संपन्न पत्रकार मित्र नभाटा व्हाट्सैप ग्रुप से जुड़ना चाहते हैं. उनकी विशाल संख्या देखते हुए वैसा संभव नहीं हो पा रहा है. लेकिन यहाँ सभी का स्वागत है. जुड़ें, पढ़ें, और उस मशाल को थाम लेने की तैयारी करें. यहाँ माथुर साहब के दो यादगार उद्दरण प्रस्तुत हैं –
1. “किसी भी जिंदादिल देश की पहचान यह है कि वह अपने आपको कायम रखने के लिए आकाश पाताल एक कर दे, और ज्यादा न सोचे कि इस हरकत से आकाश और पाताल के स्वाभाविक विकास पर क्या असर पड़ेगा.”
(अब यहाँ “देश” के बदले इंसान या पत्रकार या कौम या भाषा कुछ भी भर लीजिये, माथुर साहब के सन्देश का असर वही रहेगा.)
2. “रूस में राज्य आदमी को पराजित कर देगा, यह मानना उतना ही मूर्खतापूर्ण है, जितना कि यह विश्वास कि अमेरिका में विराट उद्योगवाद आदमी को कुचल देगा और विज्ञापन उसे सचमुच एक लपलपाता कुत्ता बना देंगे. कैक्टस की तरह इन रेगिस्तानों से आदमी विजयी उभरेगा, क्योंकि आदमी रेगिस्तान से ज्यादा दुर्निवार है.”
(ध्यान रहे, यह उन्होंने तब लिखा था जब कोई सोच भी नही सकता था कि तब आदमी और आदमीयत पर बुरी तरह हावी सोवियत संघ बिखर जायेगा. उनकी इस दूरदृष्टि की वजह थी इन्सान और इंसानियत में उनका अद्भुत विश्वास. जब भी कहीं आदमी की आदमीयत पर सत्ता हावी होती है, तो अंततः आदमी ही जीतता है, देश और काल कोई भी हो. हम दुर्निवार हैं.)
मेरे साथ उस टीम में थे और इस प्रयास में शामिल हैं - सर्वश्री विजय भास्कर, इन्द्रजीत सिंह, मणिमाला, किरण शाहीन, इंदु भारती, महेश खरे, सुकांत नागार्जुन, उर्मिलेश उर्मिल, प्रवीण बागी, गंगा प्रसाद, फैसल अनुराग, उदय कुमार, आनंद भारती, शरद रंजन शरद, श्रीचंद, नवेंदु, हरजिंदर साहनी, राजीव नयन बहुगुणा, मिथिलेश कुमार सिंह, हरेन्द्र प्रताप, देवप्रिय अवस्थी, सुनील पाण्डेय, राकेश माथुर, व्योमेश जुगरान, अरुण रंजन जी, अनिल सिंह, किरण पटनायक, गोपाल जोशी, प्रबल कुमार, सुभाष पाण्डेय, रंजन कुमार सिंह, सुहेल वहीद, इत्यादि. हो सकता है कुछ नाम छूट गए हों. क्षमाप्रार्थी हूँ. इस बीच उस टीम के साथी नीलाभ और वेद प्रकाश वाजपेयी बिछड़ भी गए. उन्हें श्रद्दांजलि सहित ...एक शुरुआत मशाल की याद में.
(गुंजन सिन्हा जी की फेसबुक वाल से, अच्छा लगा, इसलिए साभार)