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अमेरिकी डायरी के पन्ने (8)

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कोई भी देश केवल वहां के बंदरगाहों, हवाईअड्डों, राज मार्गों, इमारतों, संग्राहलयों और वहां की सम्पन्नता से नहीं बनता। देश बनता है वहां के लोगों से। अमेरिका में अगर कुछ विशेष है, तो उसके पीछे वहां के नागरिक है। एक ऐसा देश जिसका इतिहास पांच सौ साल से पुराना नहीं है, जहां दुनिया की सभी जातियों-प्रजातियों के लोग बहुतायत से हैं, जहां मानव की गरिमा सर्वोच्च है और श्रम का पूरा सम्मान है। ये सब चीजें अमेरिका को विशिष्ट होने का दर्जा देती है, लेकिन इससे बढ़कर भी कुछ बातें है, जिसके कारण अमेरिका, अमेरिका कहलाता है। (यहां मेरा आशय यूएसए से है)

अमेरिका में आप कहीं भी जाए, कितने भी दिन रुके वह आपको चमत्कृत जरूर करता है। अमेरिकियों की कुछ बातें बेहद आकर्षित करती है कि वे बहुत मेहनती हैं। अमेरिकी श्रम की गरिमा को पहचानते है। वहां समानता का बर्ताव आमतौर पर नजर आता है। (कहीं-कहीं श्वेत-अश्वेत के बीच असमानता की बातें भी आती हैं, लेकिन अब यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बचा है)। इंग्लैण्ड के गोरे अंग्रेजों के मुकाबले अमेरिका के गोरे ज्यादा संवेदनशील लगते है। आमतौर पर अमेरिकी भीतर और बाहर से एक जैसे ही नजर आते हैं। उनके नैतिकता के पैमाने अलग हो सकते है, लेकिन उनकी संवेदनाओं का स्तर भी वैसा ही है जैसा भारतीयों का है। आप कहीं भी जाएं अमेरिकी आपका स्वागत ही करेंगे । छोटी सी काफी शॉप में भी जाइए, आपका स्वागत उतने ही जोश से होता है जैसा किसी बड़े समारोह में जाने पर होता है।

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अमेरिका में हर चीज विशाल है। राज मार्ग है तो बेहद विशाल, शिक्षा संस्थान है तो बड़े-बड़े, इमारतें गगनचुंबी, शॉपिंग मॉल विशाल क्षेत्र में, कारें महंगी और बड़ी-बड़ी, आमतौर पर वहां रहने वालों के घर भी बड़े और आधुनिक हैं। आमतौर पर कहीं भी कोई भीड़ नहीं टूट पड़ती। आखिर ऐसा क्या है कि वहां के लोग कभी भी आक्रामक तरीके से न बात करते हैं, न व्यवहार। सबकुछ शालीन नजर आता है। वहां रहने वाले एक अनिवासी भारतीय से पूछा कि यहां कैसा लगता है? तो उसने कहा- ऐसा लगता है कि हम भी इनसान हैं। भारत में लगता था कि शायद हम कीड़े-मकोड़े हैं। भारत में कहीं भी जाओ, भीड़-भाड़, धक्का-मुक्की और पहले पाने की तड़प। मैंने पूछा ऐसा क्यों है? जवाब मिला- शायद वहां संसाधन कम है और उस पर भी उन संसाधनों का वितरण समान नहीं है। जो पैसे वाला है और रसूखदार है वहीं सारे संसाधनों पर कब्जा जमाने की ताक में रहता है।

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सेन फ्रांसिस्को के लोम्बार्ड स्ट्रीट पर गूगल कार्ट पर घूमते युवा और पीयर 39 पर बच्चे के साथ घूमता परिवार, बच्चा खो न जाए इसलिए बच्चे के बैग से रस्सी बंधी हुई है

उस अनिवासी भारतीय की बात सही लगी। अमेरिका में फिलास्फी ऑफ ऐडक्वैट रिसोर्सेस चलता है। हर व्यक्ति को यह पता है कि वहां संसाधनों की कमी नहीं है। जब भी वह चाहेंगे वह संसाधन उसे मिल जाएगा। भारत में लोगों की प्रमुख जिम्मेदारियां हैं- अच्छा घर, ठीक-ठाक कार, बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा की व्यवस्था, सेवा निवृत्ति पर गुजारे की व्यवस्था और सम्मानजनक जीवन। इन चीजों के लिए भारत में लोग गहरा संघर्ष करते है। करोड़ों भारतीयों के लिए घर एक सपना ही है। मध्यमवर्ग किसी तरह किश्तों पर गाड़ी लेता है और भुगतता रहता है। बच्चों की पढ़ाई की बात करें तो भारतीय महानगरों में स्कूल में प्रवेश एक बहुत बड़ी चुनौती है। बीमार होने पर लोगों के घर बिकना आम बात है और बुढ़ापे में भारतीयों को परजीवी बनकर रहना पड़ता है। सरकार नाम की चीज कहीं नजर नहीं आती।

भारतीय हालात के विपरीत अमेरिका में मूलभूत चीजों के लिए संघर्ष बहुत कम है। घर और मकान पक्की नौकरी हो तो आराम से किश्तों पर मिल जाते हैं, बच्चों की पढ़ाई सरकार की जवाबदारी है। वृद्धों के लिए पेंशन की व्यवस्था है। चिकित्सा व्यवस्था सभी के लिए उपलब्ध है। खास बात यह है कि कागजों पर तो यह सभी सुविधाएं भारतीयों को भी है, लेकिन हालात ऐसे नहीं है। महानगरों में तो मध्यवर्गीय परिवार एक से अधिक बच्चे इसलिए पैदा नहीं कर पा रहे है, क्योंकि वे उनकी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते। केवल सरकारी नौकरियों से रिटायर होने वाले लोग ही ठीक-ठाक पेंशन पाते है। बाकी लोग 250-300 रुपए पेंशन के हकदार है और वह भी साल-साल, छह-छह महीने में मिलती है। अमेरिका में लोगों को लगता है कि वहां की सरकार के पास पर्याप्त संसाधन है और उन्हें जीने के लिए उतना संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। अगर सरकार जरूरी समझेगी तो उन्हें पर्याप्त मदद मिल ही जाएगी। इस सिद्धांत के चलते अमेरिकी नागरिक व्यवहार रूप में संतोष का भाव रखते हैं, जबकि हमें ‘जब आवे संतोष धन’ जैसे सिद्धांतों पर चलकर जीवन गुजारना पड़ता है।

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ऐसा नहीं है कि अमेरिकी लोगों के सामने चुनौतियों नहीं हैं। हर अमेरिकी कर्ज से दबा है, हर अमेरिकी सरकारी करों के बोझ से दबा है, हर अमेरिकी को उसकी बीमें की किश्त परेशान करती है। आम अमेरिकियों की आय का बहुत बड़ा हिस्सा कर्ज की किश्तों, टैक्स और बीमे की किश्त देने में ही बीत जाती है। इसके बावजूद अमेरिकी शांत, संयत और अनुशासित नजर आते हैं।

एक ऐसा देश जिसका क्षेत्रफल भारत से तीन गुना से भी अधिक हो और आबादी लगभग एक चौथाई। उस देश में हर जगह एक जैसा व्यवस्थित इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना मजाक नहीं है। इस सबके पीछे अमेरिका के लोगों की कड़ी मेहनत साफ नजर आती है। 250-300 साल पहले जब भारत में राजा-महाराजा छोटी-छोटी बातों के लिए लड़ रहे थे, तब अमेरिका अपनी आधारभूत संरचना को तैयार करने के लिए काम कर रहा था। जब भारत जातिवाद और सांप्रदायिक उन्माद में उलझा था, अमेरिकियों के आगे अपने देश का विकास लक्ष्य रहा था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने अपने देश के दरवाजे पूरी दुनिया के लिए खोल दिए थे और सारी दुनिया के लोग अमेरिका जाकर बसने लगे थे। बाद में अमेरिका को अपनी नीति से हाथ खींचना पड़ा, क्योंकि वहां की सरकार को लगा कि उन लोगों का बोझ वह नहीं उठा पाएगी, जो बड़ी संख्या में बाहर से आकर दायित्व बन रहे है।

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अमेरिका के राज मार्गों पर मैंने देखा कि सुबह पांच बजे से भारी यातायात उमड़ पड़ता है। एक नागरिक ने बताया कि यहां ट्रैफिक के पीक ऑवर्स सुबह 5 से और शाम 3 से 7 होते है। 8 बजे तक अधिकांश कार्यालय पूरी तरह गतिशील हो जाते है। कई दफ्तर तो सुबह 7 बजे से ही काम करने लगते है। 11 बजते-बजते लंच ब्रैक हो जाता है और फिर काम शुरू। काम करने के लिए लोग 100-100, 150-150 किलोमीटर दूर से आते है। आमतौर पर वे देर रात तक रुकना पसंद नहीं करते और निर्धारित समय पर घर लौट जाते है। रात 10 बजे तक बड़े-बड़े शहरों में सन्नाटा पसर जाता है। सड़कों पर कोई हायतौबा नहीं, कोई हांकिंग नहीं, नियमों की अवहेलना नहीं, लोग एक-दूसरे को पूरा सम्मान देते हुए गाड़ियां चलाते है। घर जाने की हर एक को जल्दी होती है, लेकिन यातायात नियमों की अवहेलना कहीं नजर नहीं आती। तीन हफ्ते की यात्रा के दौरान अमेरिका में कहीं भी ऐसी दुर्घटना देखना को नहीं मिली, जिसमें किसी व्यक्ति की जान गई हो या कोई गंभीर घायल हुआ हो।

भारत में हम समझते है कि हमारा काम केवल गंदगी फैलाना ही है और सफाई करना नगर निगम या ग्राम पंचायत का काम है। वहां की सफाई का माहौल देखकर भारत से जाने वाला शख्स भी सफाई के प्रति सजग हो जाता है। गंदगी फैलाने पर भारी जुर्माने का प्रावधान तो है ही, जुर्माना किया और वसूला भी जाता है। किसी को यह भ्रम नहीं है कि वह बड़ा आदमी है या ऊंची राजनीतिक पहुंच वाला शख्स है। कानून सबके लिए बराबर है, तो है। कानून की गिरफ्त में सब बराबर हैं। एक अमेरिकी ने भारतीय यातायात के बारे में कहा कि वहां कानून का पालन क्यों नहीं होता? अगर सलमान खान ने शराब पीकर गाड़ी चलाई और किसी को कुचला तो उसका केस 15 साल से क्यों लटका है? अगर उसने अपराध किया है तो सीधा जेल भेज दो और अगर अपराध नहीं किया है तो मुक्त करो ताकि वह भी चेन से जी सके।

मानव श्रम की गरिमा अमेरिका में देखने को मिलती है, जब बड़े से बड़ा आदमी भी अपना काम खुद करता नजर आता है। घरेलू नौकर और ड्रायवर वहां दुर्लभ हैं। घरों में बड़े से बड़े लोग भी अपना काम खुद ही करते है और अपनी गाड़ी भी खुद ही चलाते है, वहां उनकी गाड़ी के दरवाजे खोलने के लिए कोई आगे नहीं आता। विशालतम पार्किंग लाट्स में गाड़ी खड़ी करके एक-एक मील तक लोग पैदल चलते हैं। इसके बावजूद आम अमेरिकी मोटापे के शिकार है और वहां पांच-पांच सौ लोग एक साथ कसरत कर सके इतने बड़े-बड़े जिम भी देखने को मिले। पर्याप्तता के सिद्धांत के कारण ही शायद वहां लोग खूब जी भरकर खाते है।

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किसी भी चीज का व्यावसायीकरण करना अमेरिकी खूब जानते है। वहां कोई भी सुविधा नि:शुल्क नहीं है। पार्किंग हर जगह पैसे देने पर ही उपलब्ध होती है। टोल टैक्स अधिकांश मार्गों पर है। जनसुविधाओं की कीमत अच्छी खासी है। आमतौर पर पार्किंग शुल्क घंटों के आधार पर होता है और प्रमुख शहरों में वह 5 डॉलर प्रति घंटे से अधिक भी है। कहीं-कहीं तो 10 डॉलर घंटा भी देना पड़ता है। किसी होटल में जाकर रुके तो होटल कमरे के अलावा कार की पार्किंग का पैसा भी अलग देना पड़ता है। राज मार्गों पर टोल टैक्स के अलावा विशेष लेन भी हैं। जिन पर कम भीड़ होती है, क्योंकि वे ज्यादा पैसा वसूल करते है। भारत में आमतौर पर लोग साक-सब्जी की दुकानों पर मोल-भाव करते है वहां सीधा मोल-भाव तो नहीं होता, लेकिन डिस्काउंट का चलन काफी है। मंदी की मार से निपटने के लिए एक पर एक फ्री का फॉर्मूला वहां खूब आजमाया जाता है। जहां कई भी अमेरिकियों के हित पर आघात पहुंचता है वे तत्काल एक हो जाते हैं। यह खूबी वहां रहने वाले अनिवासी भारतीयों में नजर नहीं आई। भारतीय समुदाय के लोग वहां भी पंजाबी, मलियाली, तेलुगु, गुजराती, बिहारी जैसे खांचों में बंटे हैं। वहां भी ब्राह्मण, जाट और जैन जातियों के संगठन नजर आते हैं। हम भारतीय भारत में भी एक नहीं होते और वहां जाकर भी एक होने में हमें कष्ट होता है। इसी कारण वहां सम्पन्न भारतीयों की हत्या के मामले भी हुए है।

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एकाकीपन महसूस करने वाले भारतीय मूल के लोग भी अमेरिका छोड़कर वापस आना नहीं चाहते। उनकी पीड़ा यह है कि वे अब भारत को अपना नहीं सकते क्योंकि उन्हें और उनके बच्चों को वहां की सुविधाओं की आदत पड़ चुकी है। दूसरी तरफ उनमें से अधिकांश लोग अमेरिकी मुख्यधारा में समाहित नहीं हुए है और वहां भी वे अपना अलग समुदाय बनाकर रहना पसंद करते हैं। इन कारणों से वे अमेरिकियों में लोकप्रिय नहीं है। उनमें से अधिकांश की दिक्कत यह भी नजर आई कि जो लोग 20-25 साल पहले भारत छोड़कर गए थे उन्हें लगता है कि भारत अब भी वैसा ही देश है। 20-25 साल की भारत की तरक्की उनमें से कुछ ही लोगों ने देखी है और जब वे भारत आकर देखते है कि दिल्ली और मुंबई का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा किसी भी अमेरिकी हवाई अड्डे से ज्यादा आधुनिक और सुविधाजनक है और इसी तरह दिल्ली की मेट्रो ट्रेन न्यूयार्क की वाशिंगटन की मेट्रो की तुलना में ज्यादा अच्छी, सुविधाजनक और सस्ती है, तो उन्हें अचरज होता है। एक शख्स ने कहा कि अब हम भारत क्यों जाए, अब तो भारत ही अमेरिका हो चला है।

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