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श्रीलंका यात्रा की डायरी (3)

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श्रीलंका की चाय का बहुत नाम सुना था। श्रीलंका की यात्रा के दौरान वहां चाय के बागान देखने, चाय की फैक्ट्रियों में घूमने और चाय बागानों से जुड़े लोगों से बाते करने का मौका मिला। इसमें कोई शक नहीं कि श्रीलंका की चाय अच्छी किस्म की है, लेकिन चाय प्रेमी होने के नाते मैं यह बात दावे से कह सकता हूं कि भारतीय चाय का दुनिया में कहीं कोई मुकाबला नहीं। श्रीलंका की चाय के साथ एक बात और है कि वह गुणवत्ता के हिसाब से कहीं ज्यादा महंगी है। जबकि भारतीय चाय अच्छी गुणवत्ता की होने के साथ ही उचित दाम पर दुनियाभर में उपलब्ध है।

श्रीलंका में जगह-जगह चाय की दुकानों के शोरूम देखना अच्छा लगा। कई शोरूम तो इतने अच्छे सजाए गए थे, मानो वहां चाय नहीं जेवरात बिक रहे हों। किसी भी देश का अपने उत्पाद को इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना हमारे लिए सीखने वाली बात है। हम अपने देश के अनेक ऐसे उत्पादों को भी दुनिया में बेच नहीं पा रहे हैं, जो दुर्लभ हैं। श्रीलंका से यह छोटी सी बात भारत सीख सकता है।

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श्रीलंका को होने वाली विदेशी आय का एक प्रमुख स्त्रोत चाय भी है। श्रीलंका के जीडीपी में चाय का योगदान दो प्रतिशत से अधिक है और वह करीब 70 करोड़ डॉलर का योगदान श्रीलंका को देता है। करीब 10 लाख लोग इससे रोजगार पाते है। श्रीलंका दुनिया में चाय उत्पादकों में चौथे क्रम पर है। चाय बागानों के कारण श्रीलंका के वन्य जीवों को काफी हानि उठानी पड़ी है। श्रीलंका में चाय की खेती को बढ़ावा तब मिला जब दाल-चीनी की खेती बहुत फायदा का धंधा नहीं रही। 1833 के बाद कॉफी की फसल लेने की कोशिशें भी की गई, लेकिन श्रीलंका का इलाका इसके लिए उपयुक्त नहीं पाया गया। कॉफी की खेती को अनेक बीमारियां जकड़ लेती थी और मौसम भी इसके अनुरूप नहीं था। धीरे-धीरे कॉफी की खेती कम होती गई और उसकी जगह चाय ने ले ली। 1824 के आसपास श्रीलंका में अंग्रेज शासकों ने पहली बार चाय उगाने की कोशिश की। यह चाय चीन से लाई गई थी, लेकिन उसके अच्छे नतीजे नहीं निकले। उसके पास 1839 में भारत में मौजूद ईस्ट इंडिया कंपनी ने असम से चाय के पौधे ले जाकर श्रीलंका में खेती करने की सोची। शुरुआत में यह खेती केवल 19 एकड़ में होती थी। मौसम के अनुकूलता के कारण श्रीलंका में चाय की खेती सफल रही और चाय का रकबा बढ़ता गया। 1873 में श्रीलंका से पहली बार चाय इंग्लैण्ड को निर्यात की गई। उस चाय की मात्रा थी करीब 10 किलो। इस चाय के बारे में सर आर्थर कॉनन डॉयल ने इस चाय के बारे में अनेक उल्लेखनीय बातें लिखी है। लूलकांडुरा, रुकवुड, मुलवया आदि क्षेत्रों में धीरे-धीरे चाय की खेती होने लगी। चाय के इन बागानों को श्रीलंकाई हाथी नुकसान पहुंचाते थे। इसलिए बड़े पैमाने पर हाथियों का शिकार किया गया। श्रीलंका यात्रा के दौरान हमारे गाइड ने बताया कि हाथियों को मारने का अभियान इतने तेजी से चल रहा था कि एक बार एक हफ्ते में ही 76 हाथियों को मार डाला गया। आज भी श्रीलंका में हाथी एक प्रमुख वन्य जीव है, लेकिन चाय बागान मालिकों के दबाव में उन्हें राष्ट्रीय उद्यानों में ही आमतौर पर रखा जाता है। श्रीलंका में हाथियों की तादाद घटकर करीब छह हजार ही बची है। इससे पांच गुना ज्यादा हाथी भारत में मौजूद है।

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अंग्रेज चाय बागान मालिकों ने श्रीलंका में चाय की खेती को व्यावसायिक रूप से लाभदायी बनाने के लिए हर तरीके के प्रयास किए। लिप्टन ब्रांड सबसे पहले पहुंचने वालों में से था। अंग्रेजों ने श्रीलंका में उत्पादित चाय के कारोबार को चलाने के लिए उसका कार्पोरेटाइजेशन किया। सिलोन (श्रीलंका का पूर्व नाम)चेम्बर ऑफ कॉमर्स की स्थापना हुई। चाय के उत्पादों की नीलामी की जाने लगी। ब्रिटेन और अमेरिका में यहां की चाय निर्यात करने का दौर शुरू हुआ। चाय की नीलामी में भाग लेन वाले दलालों ने अपना ब्रोकर्स एसोसिएश संगठन खड़ा कर लिया। 1970 तक यह चाय उत्पाद एक लाख 10 हजार टन (करीब ११ करोड़ किलो)तक पहुंच गया। टी रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई। धीरे-धीरे सिलोन की चाय बेचने वाली अनेक वंâपनियां और ब्रोविंâग हाऊस बाजार में आ गए। 1960 तक चाय का उत्पादन और बढ़ गया। चाय उद्योग के 100 साल पूरे होने पर 1960 में चाय पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन भी बुलाया गया। करीब 50 साल पहले इंस्टेंट कॉफी की तरह इंस्टेंट टी का उत्पादन भी शुरू हुआ। श्रीलंका सरकार की कोशिशों की कारण चाय को अंतरराष्ट्रीय रूप से स्थापित करने में उन्हें मदद मिली। 1980 के मास्को ओलंपिक में और उसके बाद के कई अंतरराष्ट्रीय खेलों में श्रीलंका को चाय का ऑफिसियल सप्लायर घोषित किया गया। करीब 20 साल पहले श्रीलंका की सरकार ने चाय पर से निर्यात शुल्क हटा दिया और टी रिसर्च बोर्ड की स्थापना भी कर डाली। 2001 आते-आते चाय का उत्पाद 3 लाख टन (30 करोड़ किलो) हो गया। श्रीलंका की सरकार ने अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के बाद चाय को श्रीलंका के वैश्विक ब्रांड के रूप में स्थापित करने में बड़ी मदद की।

चाय के बागानों में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर तमिलनाडु के थे। उन तमिल भाषियों के प्रति श्रीलंका के लोगों में बहुत सहयोगात्मक रूख नहीं रहा। गृह युद्ध के हालात ने चाय के उद्योग को बड़ा नुकसान पहुंचाया। बागानों में काम करने वाले मजदूरों में 85 प्रतिशत तक महिलाएं हैं। 12-12 साल के बच्चे भी यहां काम करते देखे जा सकते है। चाय उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र नुवारा एलिया में चाय बागानों में से चाय के पौधों से पत्तियां तोड़ कर लाने की मजदूरी नाम मात्र की थी। इन मजदूरों को पत्तियों के वजन के हिसाब से मजदूरी दी जाती थी। पूरा-पूरा दिन चाय की पत्तियां तोड़ने की बाद मजदूरों के हिस्से नाम मात्र का पैसा ही आ पाता था। मजदूरों को एक किलो पत्ती के बदले 7 रुपए दिए जाते थे जो हमारे भारत के 3.5 रुपए के बराबर है। आज की तारीख में चाय बागानों में काम करने वालों की दशा थोड़ी ठीक है। उनकी तुलना में चाय की फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों को ज्यादा पैसा मिलता है। चाय की पत्तियों को सुखाने, तोड़ने और छांटने आदि के काम करने वाले पुरुष मजदूरों को 378 श्रीलंकाई रुपए और महिलाओं को 261 श्रीलंकाई रुपए मिलने लगे। श्रीलंका में चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों की गरीबी का स्तर श्रीलंका के अन्य मजदूरों की तुलना में बहुत नीचे है।

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चाय बागानों के मालिकों ने अपने आय के नए-नए धंधे खोज लिए है। सुंदर प्राकृतिक स्थान होने के कारण अनेक बागानों ने होटलों और गेस्ट हाउस के धंधे को भी अपना लिया है। चाय बागान के भीतर ही चाय की फैक्ट्री भी उन्होंने डाल दी और होटल भी खोल दिए। होटलों के साथ ही उन्होंने चाय की फुटकर बिक्री भी शुरू कर दी। ऐसे ही एक चाय बागान की फैक्ट्री देखने का हमें मौका मिला। फैक्ट्री का 90 प्रतिशत काम महिलाएं ही संचालित कर रही थी। इसके अलावा बिक्री, गेस्ट हाउस, रेस्टोरेंट आदि का काम भी वहीं संभाल रही थी। चाय फैक्ट्रियों मे चाय की पत्तियों को सुखाने के लिए जो बड़ी-बड़ी मशीनें लगी है, उनके कारण वातावरण में नमी बहुत ज्यादा होती है। चाय की पत्तियों को पीसने के दौरान उनके बारिक-बारिक कण हवा में उड़ते रहते है और यह मजदूर ऐसे वातावरण में कार्य करने के लिए बाध्य हैं। हमें बताया गया कि ये मजदूर आमतौर पर अपने कार्य से खुश है। बातचीत में भी उन्होंने कोई असंतोष जाहिर नहीं किया, लेकिन उनकी माली हालात सबकुछ बया कर रही थी। उनमें से कुछ मजदूर हिन्दी भी जानते थे। टूटी-फुटी हिन्दी में उन्होंने अपने हालात बया किए।

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श्रीलंका के चाय बागानों की मिल्कियत विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, श्रीलंका के राजनेताओं और श्रीलंकाई क्रिकेट खिलाड़ियों के हाथ में है। क्रिकेट वहां बहुत बड़ा धंधा है। भारत में श्रीलंकाई क्रिकेट खिलाड़ियों के विज्ञापन जरूर दिखाई देते है, लेकिन श्रीलंका में किसी भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी को तवज्जों नहीं है। न विज्ञापनों में न टीवी चैनलों पर। श्रीलंका के अर्थशास्त्री ने बताया कि श्रीलंका के बंदरगाह, सड़कें और यातायात के तमाम साधन जिनमें रेलवे भी शामिल है चाय उद्योग की ही देन है। चाय के कारोबार ने ही श्रीलंका को विदेशी मुद्रा अर्जित करने में मदद की है। श्रीलंकाई चाय में सबसे नाजुक पत्ते वाली चाय जिसे हाथ से तोड़ा जाता है और फिर सूखाकर पीसा जाता है, सिल्वर टिप कहलाती है। इन नन्हीं-नन्हीं कोंपलों से भीनी-भीनी खुशबू आती है। हम भारत में ठेले और गुमटी पर जैसी चाय पीते है, वैसी चाय डंठल और बड़ी पत्तियों के पीसने से बनती है।

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ऐसा लगता है कि श्रीलंका ने ठान लिया है कि वह अपनी चाय की कीमत हमेशा ज्यादा ही रखेगा। इस महंगी कीमत के कारण दुनिया के बहुत से बाजारों में वह पहुंचती ही नहीं है। चाय की कीमतें इस बात से तय होती है कि उनकी पत्तियां किस प्रजाति के पौधे की है और वह किस जमीन पर उगाई जा रही है। हमें कैंडी में एक टी म्यूजियम देखने का मौका भी मिला। दर्जनों तरह की चाय चखने और पीने का मौका भी मिला, लेकिन मेरा अनुभव यहीं है कि जो स्वाद भारतीय चाय में है वह श्रीलंकाई चाय में नहीं है। मैंने भारत की अनेक किस्म की चाय पी है और वह भी अलग-अलग तरीके से बनाई हुई। श्रीलंकाई चाय के बारे में मेरी धारणा वहीं है, जो इस मुहावरें में है- ऊंची दुकान, फीकी चाय।

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