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लोकसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली हो, लेकिन सबसे बड़ी विरोधी पार्टी तो वह है ही। एक ऐसी विरोधी पार्टी, जिसने सत्तारूढ़ दल के सामने सरेंडर कर रखा है। सत्ता ही जिस पार्टी का ऑक्सीजन है। बिना सत्ता के वह तड़पती रहती है और निर्जीव होकर इंतजार करती है कि कोई आएगा और उसे सत्ता का ऑक्सीजन मास्क पहना देगा। बहस करने के सारे मंच उसने छोड़ दिए है। विरोध के नाम पर वह कोई नीति तय नहीं कर पा रही। उसके तमाम नेता अंड-बंड बयान देते नजर आते है। देश की धड़कनों से अनजान कांग्रेस अभी भी मूर्खों के स्वर्ग में विचरण कर रही है, जिसके नेता ज़रा सी बात में हिम्मत हार जाते है। जहां सरकार की नीतियों का विरोध करना चाहिए, वहां वे विरोध की खानापूरी करते है।

कांग्रेस के वर्तमान नेता यह बात भूल चुके है कि कांग्रेस एक पार्टी नहीं, एक आंदोलन था। सत्ता में लगातार बने रहने का मद उसे अंदर ही अंदर खोखला करता गया। सत्ता पाने के लिए उसने क्षुद्र समझौते किए। फिर सत्ता को बनाए रखने के लिए पुष्टीकरण और वोटों की राजनीति की। सत्ता में बने रहने के लिए जब जो अनुकूल लगा, उसके अनुसार ढल गई। राजनीति के पंडित कहने लगे कि कांग्रेस एक आंदोलन थी। फिर वह एक पार्टी बनी और बाद में वह सत्ता चलाने का एक तंत्र बन गई। सत्ता के इस तंत्र को चलाने के लिए तरह-तरह के ईंधन लगते थे। यहां-वहां से जुगाड़ करके कांग्रेस उस तरह के ईंधन का इंतजाम करती रही। एक ऐसा दौर आया, जब कांग्रेस को अपने बूते पर पर्याप्त सीटें नहीं मिली, तब उसने दिल्ली में सत्ता पर काबिज होने के लिए मोर्चे का सहारा लिया।

कांग्रेस के नेता यह बात भूलते गए कि आंदोलन से जन्मी पार्टी समझौतों और अवसरवाद की भेंट चढ़ चुकी है। सत्ता में बहने रहने के फॉर्मूले अलग-अलग होते है। जिन फॉर्मूलों का इस्तेमाल करके कांग्रेस सत्ता में आती थी, उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करके भाजपा अपनी ताकत बढ़ाती रही। कांग्रेस अल्पसंख्यकों के पुष्टीकरण में रही, तो भाजपा ने वोटों के ध्रुवीकरण का सहारा लिया। आयाराम-गयाराम की राजनीति को इंट्रोड्यूस करने वाली कांग्रेस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि विपक्ष भी इसी फॉर्मूले को अपना सकता है। भाजपा एक ऐसी पार्टी बन गई, जिसमें तमाम दलों के लायक, नालायक, योग्यता प्राप्त, अवसरपरस्त, नैतिक-अनैतिक नेता जुड़ते चले गए। धीरे-धीरे भाजपा ने अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ली कि केन्द्र में सत्ता पाने के लिए अब उसे किसी मोर्चे की जरुरत नहीं है। हालांकि मोर्चे में बना रहना उसकी सेहत के लिए लाभकारी है।

सन 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नामक आंदोलन का जन्म हुआ था, तब उसका लक्ष्य सत्ता नहीं था। सत्ता में मामूली भागीदारी ही उसका लक्ष्य था। वक्त बदलते-बदलते 5 दशकों में कांग्रेस ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगाया। 62 साल होते-होते देश आज़ाद हो गया और पार्टी के नाम पर देश में कांग्रेस का एक छत्र राज रहा। राज भी ऐसा कि वह जिसे चाहती, वही शीर्ष पर होता। कांग्रेस ने भीमराव आंबेडकर को नहीं चाहा, तो भीमराव आंबेडकर संसद में भी नहीं पहुंच पाए। यह वही भीमराव आंबेडकर थे, जिन्होंने भारत का संविधान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गांधीजी के कहने पर जिन आंबेडकर को जवाहर लाल नेहरू ने अपनी सरकार में मंत्री बनाया था। गांधीजी की हत्या के बाद भी कांग्रेस का ऐसा बोलबाला रहा कि हिन्दू महासभा के परखच्चे उड़ गए। गांधीजी की हत्या के लिए हिन्दू संगठनों को दोषी करार दिए जाने के बाद हिन्दू संगठन शर्म से गढ़े जा रहे थे। हाल यह था कि तब कोई हिन्दू गर्व से यह नहीं कह पाता था कि वह हिन्दू है। कांग्रेस ने वास्तव में शुरू के वर्षों में सबका साथ, सबका विकास काे लक्ष्य बनाया। अल्पसंख्यकों का कल्याण भी उसके लिए मुद्दा था और पिछड़ों को आगे लाना भी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस सबसे बड़ा संगठन था और आज़ादी पाते-पाते वह सबसे बड़ी पार्टी बन चुका था। एक ऐसी पार्टी, जिसमें दर्ज़नों आनुशांगिक संगठन थे, जिनका काम लोगों को जोड़ना और मुख्य धारा में लाना था। महिलाओं, युवाओं, छात्रों, मज़दूरों आदि के लिए कांग्रेस के पास अलग-अलग संगठन थे। बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद पाल, गोपाल कृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी, फिरोज़ शाह मेहता, सरदार वल्लभ भाई पटेल, रासबिहारी घोष, सुरेन्द्र नाथ बेनर्जी, आनंद मोहन बोस, दिनशाह वाचा, मदनमोहन मालवीय, अम्बिकाचरण मजूमदार, सैयद हसन इमाम, चित्तरंजन दास, हकीम अज़मल खान, मोहम्मद अली जौहर, अबुल कलाम आज़ाद, मुख्तार अहमद अंसारी, आचार्य कृपलानी, पट्टाभि सीतारमैया, उछंग राय ढेबर, नीलम संजीव रेड्डी, के. रामराज, पुरुषोत्तम राज टंडन, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई जैसे नेता तो कांग्रेस में थे ही, महात्मा गांधी भी थे।

अब यह हाल है कि लोगों ने कांग्रेस को अपना रहनुमा समझा और कांग्रेस ने जनता को झुनझुना। देश के नब्ज़ यह पार्टी नहीं पहचान पा रही है। स्वार्थ और सत्ता के मद में संगठन शक्ति के बजाय नेता भक्ति में सारा जोर लगा हुआ है। जनभावनाओं की पार्टी को कोई समझ नहीं है। ताजा उदाहरण 370 और कश्मीर मुद्दे को लिया जा सकता है। इस महान पार्टी के नेता यह नहीं समझ पा रहे है कि वे क्या बयान दें कि उनका विरोध दर्ज़ हो जाए। उन्हें इतना समझ में नहीं आ रहा है कि सत्ता लोगों के वोटों से मिलती है और लोगों की भावनाएं क्या है? चुनाव घोषणा पत्र में जम्मू-कश्मीर के बारे में जिस तरह के वादे किए गए थे, उन वादों को लेकर लोगों में जो भ्रम फैला, अब उसके नेता उसी को आगे बढ़ा रहे है। क्या कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को इतनी समझ नहीं है कि उनके बयानों का विश्व स्तर पर किस तरह दुरूपयोग किया जा सकता है? राहुल गांधी के बयान को पाकिस्तान के नेता जिस तरह उछाल रहे है, उस पर कुछ कहने के लिए बचा नहीं है। भले ही राहुल गांधी अपनी सफाई देते फिरे, लेकिन तीर धनुष से निकल चुका है। निश्चित ही राहुल गांधी के विचार देशविरोधी नहीं है, लेकिन उनकी सापेक्षित बातों को भी पाकिस्तान किस तरह उड़ाकर ले जा सकता है, यह उसका उदाहरण है।

अब कांग्रेस के नेता कह रहे है कि आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को राज्यपाल बनाना अपेक्षित ही था। इसके क्या मायने? तीन तलाक मुद्दे पर राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने जिस तरह के फैसले लिए, उस फैसले से कांग्रेस की छवि एक प्रगतिशील पार्टी के बजाय धर्मभीरू और संतुष्टिकरण की नीति वाली रही। कांग्रेस के नेता चाहते, तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी झुठलाया और प्रगतिशीलता को भी। साथ ही अपनी छवि ऐसी बना ली, जैसे वे अल्पसंख्यकों के सामने झुकने वाली कांग्रेस है। अभिषेक मनु संघवी तो एक ही है, उनके अलावा भी कांग्रेस में एक से एक प्रवक्ता है, जिनमें कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, राशिद अलवी, अहमद पटेल, राज बब्बर आदि है।

आज़ादी मिलने तक कांग्रेस एक ऐसी राष्ट्रवादी पार्टी थी, जिसमें नागरिकों के लिए जगह थी। स्वतंत्रता, सहिष्णुता, समानता, अभिव्यक्ति की आज़ादी यह सब कांग्रेस के मूल्य हुआ करते थे। आज़ादी के बाद मूल्यों की राजनीति करने वाली कांग्रेस कीमतों की राजनीति पर आ गई। कांग्रेस ने विपक्ष को यह कहने का मौका दिया कि आज़ादी के वक्त भारत की बुनियाद में जिस तरह का स्टील, सीमेंट, ऊर्जा भरी जा रही थी वह नहीं भरी जा सकी। इस कारण कांग्रेस विचारों के बजाय व्यक्ति पर केन्द्रीत होती गई। नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस की धुरी बन गया। मुखर विरोध के स्वर या तो दबा दिए गए या हटा दिए गए। निश्चित ही कांग्रेस के नेताओं ने दूरदृष्टि से कार्य किया। देश की एकता और अखंडता को बढ़ाने के लिए समर्पित रहे। देश को अब जाकर समझ में आ रहा है कि जो और जितनी प्रयास किए गए, शायद वे कुछ कम थे।

28 दिसंबर 1885 को मुंबई के गोकुलदास तेजपाल कॉलेज में 72 सदस्यों से शुरू हुई कांग्रेस आज़ादी मिलने तक करोड़ों लोगों की आवाज बन चुकी थी। देश का कोई राज्य, कोई नगर या कस्बा, कोई गांव ऐसा नहीं था, जहां कांग्रेस के कार्यकर्ता नहीं थे। आज भी कांग्रेस के कार्यकर्ता हर जगह मौजूद है, लेकिन उनका मनोबल इतने निम्न स्तर पर पहुंच चुका है, जिस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। आज कांग्रेस एक ऐसी पार्टी में तब्दील हो गई है, जिसका संगठन खोखला है और जड़े इतनी कमजोर कि वह अपनी पत्तियों को हरी नहीं रख पा रही। क्या किसी ने कभी कल्पना की थी कि एक ऐसी पार्टी, जिसका अध्यक्ष पराधीन भारत में भी देश का सबसे प्रतापी व्यक्ति माना जाता था, आज उस पार्टी के पास प्रमुख पद के लायक कोई व्यक्ति नहीं। एक ही परिवार के लोग चाहते या न चाहते हुए भी शीर्ष पर बैठे है। राज्यों की दशा तो सोचनीय है।

कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की गलती यह रही कि सत्ता पाने के बाद उन्होंने संगठन को बेजान होने दिया। उन्हें लगा कि सत्ता ही सबकुछ है। वे भूल गए कि सत्ता एक बाय प्रोडक्ट है। मूल काम तो संगठन करता है। दिल्ली से राज्यों में छत्रप बैठाना काफी नहीं होता। कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देना होता है, उन्हें प्रोत्साहित करना होता है और विचार शक्ति प्रवाहित करनी होती है। आज़ादी के बाद भी कुछ समय तक कांग्रेस के चिंतन शिविर और विचार शिविर कॉलेजों में लगते थे। कांग्रेस की विचारधारा, संघर्ष और सिद्धांतों का पाठ पढ़ाया जाता था। लोग जानते थे कि कांग्रेस पार्टी किन सिद्धांतों पर खड़ी है। देश के लिए इस संगठन ने कितना कुछ त्याग किया है। मौका आने पर पार्टी के नेताओं ने कड़े फैसले भी किए। कुछ फैसले तो इतने कड़े थे कि पार्टी नेताओं को अपनी जान भी देना पड़ी। लाखों लोग कांग्रेस की तरफ आशा भरी निगाहों से देखते थे। गांधीजी की तस्वीर उन्हें प्रेरणा देती थी। फिर धीरे-धीरे कांग्रेस मोहनदास गांधी से राहुल-प्रियंका गांधी तक आ गई। पार्टी का अध्यक्ष उत्तरप्रदेश में अपनी परंपरागत सीट पर लोकसभा चुनाव हार गया, क्योंकि जब वह वहां का प्रतिनिधि होता था, तब उसे लगता था कि न तो लोगों से मिलना जरूरी है और न ही कार्यकर्ताओं की बात सुनना। संसदीय क्षेत्र को उपनिवेश समझने की भूल को विपक्ष ने भुनाया। जब लोकसभा चुनाव में हार के बाद मंत्री बनी स्मृति ईरानी ने पांच साल में 62 बार अमेठी संसदीय क्षेत्र की यात्राएं की और महिलाओं की गोद भराई रस्म से लेकर उठावने तक में शरीक हुई। 5 साल की इन लगातार गतिविधियों से भी कांग्रेस के नेता अनजान थे। चुनाव नतीजा आने के तीन हफ्ते तक वे अपने संसदीय क्षेत्र में नहीं पहुंचे। उन्हें चाहिए था कि जिन लाखों लोगों ने उन्हें वोट दिए, उनका आभार मानने तत्काल जाते, लेकिन नहीं। केरल में जहां से जीतकर आए है, वहां भी मतदाताओं से मिलने जाने में उन्हें कई हफ्ते लगे। मतदाता के महत्व की अनदेखी के इससे बड़े उदाहरण क्या होंगे। वर्तमान सरकार के जम्मू-कश्मीर फैसले का विरोध करना कांग्रेस का अधिकार है, लेकिन विरोध का तरीका क्या हो, यह तय होना जरूरी है। विरोध कैसे किया जाए, यह भी ज़रूरी है। विरोध के नाम पर केवल औपचारिकता निभा लेना काफी नहीं। श्रीनगर एयरपोर्ट से बेरंग वापसी के बाद दिल्ली का राजघाट था, जंतर-मंतर था, इंदिरा गांधी शक्ति स्थल था, कही भी पहुंच जाते और बताते कि सरकार के फैसले में अगर कुछ ग़लत है, तो वह क्या ग़लत है? क्या सरकार का तरीका ग़लत है या सरकार का फैसला ग़लत है या दोनों ग़लत है।

राजनीतिक पार्टियां सत्ता तक पहुंचने का वाहन है। उसकी ड्राइविंग सीट पर बैठकर आप ऊंघ नहीं सकते। हो सकता है कि रेस में आप पिछड़ जाए, देर से मंजिल तक पहुंचे, लेकिन ऊंघने का अधिकार किसी को नहीं। ड्राइविंग सीट पर बैठकर तो किसी को ऊंघने की इजाज़त नहीं हो सकती। अगर ड्राइविंग सीट संभाली है, तो पूरे चाक-चौबंद होकर ड्राइविंग कीजिए। यह एक महत्वपूर्ण कार्य है। सहयात्रियों की सुरक्षा और उन्हें मंजिल तक पहुंचाना ड्राइवर का कर्तव्य है। 

 

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