छिगन के साथ साथ मेरी भी बदरीविसाल की यात्रा सम्पन्न हुई। सड़क मार्ग से।
इंदौर से शुरू हुए और शिप्रा, देवास, शाजापुर, सारंगपुर, आगरा होकर हरिद्वार पहुंच गए। वहां से लक्ष्मण झूला, देवप्रयाग, शिव मंदिर, रघुनाथ मंदिर, भागीरथी और दुरंगी गंगा के दर्शन किये। भूत-चुड़ैल की बात की। पीर बाबा के थान के बगल से निकले। प्रकटेश्वर मंदिर गए और पंचानन महादेव, बारकोड, भद्रकाली मंदिर, बंदरपूंछ ट्रेकिंग स्पॉट, जानकी चट्टी, यमुनोत्री, बड़कोट, बद्रीनाथ, श्याम चट्टी, भीम पुल, गणेश गुफा !
साथ में थे जिया, पुरू, मेमसाब राखी और मोटे से कद्दू जैसे बदबूदार झगड़ालू सेठ!
लक्ष्मी शर्मा का उपन्यास 'स्वर्ग का अंतिम उतार' पढ़ी। लगा कि मैं भी सफर पर हूँ। शिवना ने छापी है। दूसरा संस्करण आ गया है।
पहाड़ों पर जाओ तो ट्रैफिक जाम मिलता ही है। लैंडस्लाइड भी होती है। भूत-प्रेत की कहानियां भी सुनने को मिलती हैं और गुलनार यानी तेंदुए द्वारा किसी को तो उठा ले जाने की खबरें भी! यह सब इस कहानी के पात्रों के साथ भी होता है। इंसान बार-बार फ्लैशबैक में भी चला जाता है।
याद रखो कि पहाड़ पर जाओगे तो ट्रैफिक जाम और लैंडस्लाइड देखने को मिलेगा ही और वहां आपको अपने अतीत की यादें चलचित्र की तरह सामने देखने को मिलेगी।
अमीरी हो या गरीबी, मैदान हो या पहाड़; सब जगह औरतों की ही माया है।
यह बात समझ में आई कि पहाड़ पर चढ़ते हुए कान में डुच्चा क्यों लगता है ? कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो लाश बन कर भी मिट्टी छोड़ने को तैयार नहीं होते! यह ज्ञान भी मिला कि पानी भी कच्चा और पक्का होता है! देखा कि रीवर्स का करंट कितना तेज और साउंड कितना हार्ड होता है! यह बात भी जानने को मिली कि गंगा मैया में पत्थर नहीं उछालना चाहिए क्योंकि इससे मैया को चोट लग सकती है।
यह समझ में आया कि बड़े देवता को पूजने से पहले अपने गाँव - खेड़े के देवता को पूजना चाहिए। दु:ख दरद में सबसे पहले रच्छा करने वही आते हैं !
किताब में संझ्या माता लोकगीत भी है जो ख़ास सन्दर्भ में है :
संज्या ऐ बाई ऐ ,
सासरिया में जाजे ऐ,
बैठी-बैठी मोती पोजे,
बीरा जी की बाट संजोजे ऐ...
आंखें ही नहीं, देह पथरा देने वाले किस्से, मार्मिक कहानी है जुहोओ और भोल जाला की
पहाड़ पर एक तरफ से नरम आवाज आती है ''जुहो ओ'' तो दूसरी तरफ से कर्कश आजा आवाज आती है - ''भोल जाला।" यह 'जुहो ओ' और 'भोल जाला' चिड़िया के पुकारने का आवाज है।
यह 'जुहोओ' पूछने वाली चिड़िया किसी समय में पहाड़ों में कहीं एक छोटे से गांव की बेटी थी। झरनों के साथ कूदती और नदियों के साथ बहती 13 साल की भोली-सी लड़की थी। फिर एक दिन उसका ब्याह हो गया और वह थोड़े-से दहेज के साथ पहाड़ों की ठंडक से मैदानों की गर्मी में विदा कर दी गई।
ये वो समय था जब बहू होने का मतलब घर-गिरस्ती के सारे काम करना और जल्दी से चार-छह बच्चे पैदा करना होता था। अब पहाड़ी किशोरी मैदानों में ब्याह तो दी गई तो उससे वहां की गर्मी नहीं झेली जा रही थी। वो पीहर जाना चाहती थी तो नित सास से पूछती - 'जुहो ओ' (जाऊं?) और काम के लालच में सास रोज टाल देती -'भोल जाला!'( सुबह जाना ) वो सुबह तो कभी नहीं आई लेकिन एक दिन किशोरी की मौत आ गई।
कहते हैं कि वह लड़की मर गई लेकिन उसके मायके जाने की आस कभी नहीं मरी। उसने भगवान से अगला जन्म चिड़िया का मांगा था कि जब मन करे, उड़कर मायके जा सके। लेकिन उस जमाने की बहुओं को इतनी आसानी से निजात कहां मिलती थी। बहू के साथ ही सास ने भी वही जूण मांग ली और तब से अब तक वही 'जाऊँ' और 'सुबह जाना' का किस्सा चल रहा है!
उपन्यास का अंत अनपेक्षित है। अनपढ़ वॉचमैन और डॉगकीपर छिगन लाल सोलंकी का जीवन सार्थक हो जाता है। पूरी तरह से मुक्त! उस क्षण में अभय, मृत्युंजय शिव स्वरूप! अभय, अचिन्त्य, उर्ध्वगामी, देह से मुक्त चिदानन्द स्वरूप !
पुस्तक : स्वर्ग का अंतिम उतार। लेखिका : लक्ष्मी शर्मा