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हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही यह बताते हो कि कांग्रेस की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और वह अपना जनाधार खोती जा रही हैं, लेकिन नतीजे यह भी बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी कोई अपराजेय पार्टी नहीं हैं। उत्तरप्रदेश की ही बात करें, तो वहां भारतीय जनता पार्टी ने 55 सीटें गंवाई हैं, वहीं समाजवादी पार्टी ने 67 सीटें अधिक प्राप्त की हैं। कांग्रेस का जनाधार भले ही लगभग एक तिहाई रह गया हो और बहुजन समाज पार्टी का वोट बैंक भी खिसक गया हो, लेकिन इसका पूरा-पूरा लाभ भारतीय जनता पार्टी को नहीं मिल पाया। जनाधार खिसकने का लाभ उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी को मिला है और पंजाब में आम आदमी को। अब यह तय है कि आम आदमी पार्टी ने जिस तरह पंजाब में सत्ता हासिल की है, उसे देखते हुए वह दूसरे राज्यों की तरफ भी जायेगी ही।

यह माना जाता है कि 2014 में जो राष्ट्रवाद की लहर चली थी, वह अब भी जारी है। पांच राज्यों के चुनाव के नतीजों में उसका बड़ा योगदान रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का कहना है कि सपा गठबंधन को 51.5 प्रतिशत पोस्टल बैलेट मिले। अगर उसे आधार माना जाए, तो कहा जा सकता है कि सपा गठबंधन को 304 सीटें मिली है। अखिलेश यादव उत्तरप्रदेश में ईवीएम मशीनों में गड़बड़ियों के आरोप पहले ही लगा चुके हैं, उनका मानना है कि अगर ईवीएम मशीनों में कथित गड़बड़ी नहीं की जाती, तो भारतीय जनता पार्टी को 255 सीटें उत्तरप्रदेश में नहीं मिल सकती। यह बात और है कि चुनाव आयोग ने ईवीएम में गड़बड़ियों के मामलों को सही नहीं बताया और उसी आधार पर विजेताओं की घोषणा की गई। अखिलेश के विरोधी अब यहीं कह रहे हैं कि हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ा जा रहा हैं। मतगणना के पहले ही अखिलेश यादव को अंदाज हो गया था कि चुनाव के नतीजे क्या होने वाले हैं।

विपक्ष को मिले कुल वोटों के प्रतिशत की तुलना में भारतीय जनता पार्टी को मिले वोटों का प्रतिशत काफी कम हैं, उस आधार पर कहा जा सकता है कि अधिकांश मतदाता बीजेपी से नाखुश हैं। चुनाव व्यवस्था के अनुसार सर्वाधिक वोट पाने वाला ही विजेता घोषित होता हैं, इसलिए मतदाताओं की खुशी - ना खुशी इतनी मायने नहीं रखती।

बीजेपी जिस तरह से उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में जीती हैं, वह इस मामले में बड़ी जीत कही जा सकती है कि देश में चल रहे तमाम विरोध और संकट के बीच भारतीय जनता पार्टी में लोगों ने विश्वास व्यक्त किया हैं। इन चुनाव ने यह बात भी साबित कर दी है कि अगर विपक्ष के सभी नेता आपस में मिल जाए और संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करें, तो संभव है कि 2024 में भारतीय जनता पार्टी चुनाव में वापस विजय हासिल नहीं कर पाए। आपातकाल की समाप्ति के बाद 1977 में हुए लोक सभा चुनाव में तमाम विपक्षी दल जनता पार्टी के नाम पर एक मंच पर आ गए थे और इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड़ फेंका था। इंदिरा गांधी की कांग्रेस को उन दिनों अपराजेय माना जाता था। चुनाव के नतीजों ने बता दिया था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति या दल अपराजेय नहीं हो सकता। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबी हैं। 2004 में यूपीए के झंडे तले एक हुए कांग्रेस और अन्य दलों ने लगातार केन्द्र में काबिज रहकर बता दिया था कि अब एक पार्टी के बजाय कई पार्टियों के संगठन का महत्व ज्यादा हैं।

जब यूपीए का गठन हुआ था, तब उसमें अलग-अलग विचारधारा और पार्टियों के लोग इकट्‌ठा हुए थे। ज्यादा नेताओं का मतलब है ज्यादा बड़ा कुनबा, ज्यादा लोगों की महत्वाकांक्षाएं, ज्यादा लोगों में टकराव और कुल मिलाकर कई बार गड्‌डमड्‌ड की स्थिति। भारतीय राजनीति ने यह दृश्य भी देखा हैं। यूपीए की तरह भी एनडीए की सरकार भी इस देश के लोगों ने देखी हैं। अगर चुनाव में समावेशी प्रयास किए जाएं और मिलजुलकर काम हो, तो यह मुश्किल नहीं है कि बड़ी से बड़ी पार्टी को हराया जा सकता है।

अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, तो इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि वे और उनकी पार्टी कांग्रेस को एक बड़ी चुनौती मानते हैं। पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद जिस तरह कांग्रेस के असंतुष्टों को हवा दी जा रही है, उससे यहीं लगता है कि भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं को कांग्रेस के विघटन का इंतजार हैं। कांग्रेस में होने वाली यह उठा-पटक असली हैं या नकली, कहा नहीं जा सकता। हो सकता है कि यह वास्तव में बहुत बड़ी भूमिका तय करें। तभी तो कांग्रेस के विरोधी इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि कांग्रेस दो भाग हो और उसके नेताओं में चुनाव चिन्ह को लेकर झगड़ा न्यायालय और चुनाव आयोग तक जाएं। अगर कांग्रेस का चुनाव चिन्ह आगामी चुनाव में हाथ का पंजा न हो, तो उसका भी अच्छा परिणाम कांग्रेस के विरोधियों को मिल सकता हैं, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि कांग्रेस का विघटन हो और अच्छी जूतमपैजार हो।

कांग्रेस के लिए अब एक और चुनौती आम आदमी पार्टी की तरफ से मिलेगी। पंजाब में सत्ता गंवा चुकी कांग्रेस अपने अनुभवों से सबक सीख लें, तो दूसरे राज्यों में यानी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बचा सकती हैं। महाराष्ट्र और झारखंड में तो कांग्रेस अभी जूनियर पार्टी के रूप में ही है। आम आदमी पार्टी को यह महसूस होने लगा है कि किसी भी भाजपा शासित राज्य में पैर जमाना उसके लिए आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा के केन्द्र में रहते और विशाल संस्थानों के रहते किसी भी राज्य से भाजपा को हराना शायद उतना आसान नहीं है, जितना कांग्रेस शासित राज्य में। पंजाब में चुनाव जीतने के बाद अब आम आदमी पार्टी नए-नए प्रयोग करेगी और उसका पहला प्रयोग कांग्रेस शासित राज्यों में भी होगा।

ज़रा याद कीजिए 1998 का दौर जब केन्द्र में अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे और सुषमा स्वराज को दिल्ली के भावी मुख्यमंत्री के चहरे के साथ लड़ाया गया था। प्याज के दाम आसमान पर थे, महंगाई उस दौर में चरम पर थी चुनाव के नतीजों में बीजपी को 70 में 15 सीटें ही मिली थीं। लोगों ने चुनाव में अपनी असहमति जाता दी थी। लोगों की दशा को आरएसएस बेहतर समझता है इसलिए नागपुर में यहाँ तक कि आरएसएस के 1260 नेताओं की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में एक प्रस्ताव में बेरोजगारी को देश की बड़ी समस्या माना है। सात साल में यह पहली बार हुआ कि संघ ने बेरोजगारी को सामाजिक-आर्थिक मुद्दा माना। आरएसएस भी मानता है कि देश में अधिक रोजगार के अवसरों की जरूरत है। यह बात सरकार के लिए चेतावनी है। अगर विपक्ष एक सूत्र में बंध जाए, लगातार सक्रिय रहे और लक्ष्य केवल जीत की तरफ हो तो किसी भी पार्टी को हराना असंभव नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में कोई भी पार्टी अपराजेय नहीं है।

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