करीब 259 साल पहले 14 जनवरी 1761 को पानीपत में मराठा योद्धाओं और अफगानिस्तान की सेना के बीच हुई तीसरी बड़ी लड़ाई को आशुतोष गोवारीकर ने अपने अंदाज में फिल्माया है। इतिहास के इस बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक दौर को फिल्माने के लिए निर्देशक ने रचनात्मक स्वतंत्रता खुद ही ले ली है। पानीपत में संजय दत्त ने अहमद शाह अब्दाली - दुर्रानी (1722 से 1772) का चित्रण किया है। उसे अफगानिस्तान में हीरो की तरह माना जाता है। भारत में अब्दाली को आने से रोकने के लिए पुणे से पेशवा राजा ने अपनी सेना भेजी थी, ताकि अफगानिस्तान की फौजें भारत में कब्जा न कर पाएं। लगान, स्वदेश, जोधा-अकबर आदि फिल्में बनाने वाले गोवारीकर ने फिल्म के ऐतिहासिक संदर्भों को दिखाने के साथ-साथ भारत में राजाओं के आपसी विवादों को भी दिखाने की कोशिश की है। संजय दत्त ने जिस अहमद खान अब्दाली का रोल किया है, उसे 25 साल की उम्र में ही सर्वसम्मति से अफगानिस्तान का राजा चुना गया था। अब्दाली को वहां के लोग विनम्रता और बहादुरी के लिए पहचानते है। उसे दुर-ए-दुर्रान का खिताब दिया गया था, जिस कारण उसका नाम दुर्रानी भी पड़ा।
पानीपत में मराठाओं की वीरता की कहानी है और समग्र भारत को लेकर उनकी चिंता भी। यह फिल्म मराठों की जीत की कहानी नहीं है, बल्कि उनकी अद्भूत वीरता की कहानी है, जिसे अफगानिस्तान की सेना ने भी सम्मान दिया था। पेशवा वंश के सदाशिव राव भाऊ (अर्जुन कपूर) के नेतृत्व में मराठों ने उदगिरी किले पर फतह हासिल की थी और वहां निजाम शाही की हुकूमत खत्म की थी। नाना साहब पेशवा की भूमिका निभा रहे मोहनीश बहल उदगिरी की जीत से उत्साहित रहते है, लेकिन उनकी खुशी ज्यादा टिक नहीं पाती, क्योंकि अफगानिस्तान का शासक अब्दाली भारत में भी हुकूमत करने के इरादे से दिल्ली पर कब्जा जमाना चाहता था। मुगल शासक नाजिब-उद-दोला मराठों के प्रभाव को खत्म करने के इरादे से अहमद शाह अब्दाली के पक्ष में साजिश रचता है, जो अब एक इतिहास बन चुका है।
अफगानों को भारत से खदेड़ने के लिए पुणे से मराठी सेना दिल्ली की तरफ रूख करती है। अफगान सेना में एक लाख सिपाही होते है और मराठों के पास केवल 45 हजार। उत्तरभारत के दूसरे राजाओं के सहयोग से पेशवा अपनी शक्ति बढ़ाते चलते है और दिल्ली के लाल किले पर भी कब्जा कर लेते है, लेकिन वह ज्यादा टिकता नहीं और उन्हें अब्दाली को रोकने के लिए आगे बढ़ना पड़ता है और वे पानीपत पहुंच जाते है। यह फिल्म देखते हुए मुगल-ए-आजम की याद तो आती ही है, गोवारीकर की पुरानी फिल्मों की छाप भी देखने को मिलती है। फिल्म में वीएफएक्स का इस्तेमाल भी किया गया है, लेकिन बहुत से दृश्य वास्तविक लगते है। युद्ध के मैदान में आकाश में उड़ते हुए गिद्ध युद्ध के दृश्य को सजीव बनाते हुए लगते है। खून में लथपथ सैनिक और उस दौर की युद्ध रचना की झलक फिल्म में है।
फिल्म में अर्जुन कपूर, कृति सेनन, संजय दत्त, मोहनीश बहल, पद्मिनी कोलापुरे, जीनत अमान नवाब शाह, अभिषेक निगम, कुणाल कपूर, साहिल सलाठिया आदि बहुत से कलाकार है, लेकिन फिल्म केवल तीन पात्रों पर ही केन्द्रित रहती है। अर्जुन कपूर और कृति सेनन ने संवाद अदायगी में मराठी टोन लाने की कोशिश की है। कई जगह वे सफल भी हुए हैं। संजय दत्त ने अब्दाली की भूमिका सजीव करने की कोशिश की है। अब्दाली केवल 50 साल ही जिंदा रहा था, लेकिन इस फिल्म में संजय दत्त बूढ़े नजर आते हैं। अर्जुन कपूर और कृति सेनन के लिए यह फिल्म उपलब्धि है। फिल्म में केवल 3 ही गाने है और वे दर्शकों को पसंद भी आ रहे है। फिल्म में अर्जुन कपूर को बहुत से दर्शक स्वीकार नहीं कर पाएंगे। उन्होंने रणवीर सिंह की तरह अभिनय किया है, जिससे उनकी अपनी पहचान खत्म हो गई है। मराठी भाषी दर्शकों को फिल्म बहुत पसंद आएगी।