एक लुंगाड़ा था। एक लुंगाड़ी थी। लुंगाड़ा धनलक्ष्मी लड्डू बेचनेवाली कंपनी का एकमेव उत्तराधिकारी। 2,000 करोड़ की कम्पनी। लुंगाड़ी एक न्यूज़ चैनल में क्रांतिकारी एंकर।
लुंगाड़ा पंजाबी जट, लुंगाड़ी सुसंस्कृत या यूं कहें कि सुबांग्ला खानदान की। लुंगाड़े की इंग्लिश माशाअल्लाह। लुंगाड़ी एलएसआर और ब्रिटेन में पढ़ी अंग्रेजीदां। लुंगाड़ी की मां अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर। आधी अंग्रेजन।
लुंगाड़े का दादा 1978 के ज़माने का इमरान हाश्मी और लुंगाड़ी का बापू 1998 की माधुरी दीक्षित जैसा! लुंगाड़ा रणवीर सिंह और उसका दादा धरम पाजी और दादी जया बच्चन।
लुंगाड़ी आलिया भट्ट कपूर और उसकी दादी शबाना आज़मी। लुंगाड़े के दादा धरम पाजी और लुंगाड़ी की दादी शबाना का पुराना टांका।
पुराने दौर के छायागीत। झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में, आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आये, आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा, दो दिल मिल रहे हैं मगर चुपके चुपके आदि। बिनाका गीतमाला जैसा माहौल !
लुंगाड़ा अपनी लुंगाड़ी से ज्यादा जेवर पहनता है। कुत्तों के गले में बाँधने जैसी मोटी (सोने की) चेन, कान में हीरे के टॉप्स।लुंगाड़ी थोड़े कम में काम चलाती है।
लुंगाड़ा अधनंगा रहता है, हमेशा छाती दिखाता है। लुंगाड़ी बेचारी बैकलेस में काम चलाती है।
लुंगाड़ा पूरे इंटरवल तक बक बक करता रहता है, लुंगाड़ी इंटरवल के बाद यह पवित्र काम करती है।
कश्मीर जाते हैं तो लुंगाड़ा पूरे गरम कपड़े ठाँसता है, लुंगाड़ी को कश्मीर में भी बैकलेस-स्लीवलेस पहनना पड़ता है।
लुंगाड़ा कपड़े पहनने में कोई कोताही नहीं करता। कभी कभी तो लगता है कि बेचारे ने लुंगाड़ी के कपड़े पहन लिए हैं।
लुंगाड़ी को ऐसा कोई अवसर नहीं मिला कि वह लुंगाड़े के कपड़े ठांस ले।
फ़िल्मी फार्मूला लागू।
पंजाबी रंधावा परिवार में सब खाते-पीते। मोटे। गोल-मटोल। पूरे परिवार की कमान ललिता पवार जैसी जया बच्चन के हाथ में, जो याददाश्त खो चुके धर्मेंद्र की बीवी हैं।
बंगाली चटर्जी परिवार जिसमें आलिया भट्ट, उसकी अंग्रेजी की प्रोफेसर मां और कथक डांसर बापू के अलावा दादी शबाना आज़मी हैं।
लुंगाड़े का परिवार व्हाइट हाउस जैसे भवन में रहता है।
लुंगाड़ी का कुटुंब स्टाइलिश कोठी में शान से रहता है।
लुंगाड़े का काम बॉडी बनाना, डांस करना और फरारी में घूमना है।
लुंगाड़ी जिम नहीं जाती, पर सुपर फिट है। डांस भी कर लेती है और न्यूज़ एंकर है तो सब बातें भी बढ़िया करती हैं।
लुंगाड़ा गेला है, पर दिल का अच्छा ही नहीं, सुपर फाइन है।
लुंगाड़ी भी दिल की अच्छी है और अकल की बातें करती हैं।
इसके निर्देशक वैसे तो करण जौहर हैं, पर उनमें कभी संजय लीला भंसाली की आत्मा आ गई होगी तो कभी विधु विनोद चोपड़ा की। कभी बी.आर. चोपड़ा की तो कभी राजकुमार हिरानी की।
इन आत्माओं ने फिल्म की कहानी के साथ वही किया जो भीड़ करती है।
लुंगाड़ा बंगालियों के घर में हाउस गेस्ट और लुंगाड़ी पंजाबी परिवार में।
(यह ऐसा जैसे प्रियंका गांधी को अमित शाह के घर मेहमान बना दो और स्मृति ईरानी को राहुल-सोनिया गांधी के घर पर। वो भी तीन महीने के लिए। क्या होगा?) डायलॉगबाजी और क्या? पर फिल्म तो फिल्म है।
सब अच्छा होता है। हां, करन जौहर की फ़िल्म में किसी एक बुजुर्ग को मरना ही पड़ता है, इसमें धरम पाजी का नंबर आया।
करन जौहर की परंपरा के अनुसार मय्यत में आनेवाले सभी डिजाइनर सफेद कपड़े पहनकर आये और पात्र का दाहसंस्कार भी डिजाइनर श्मशानघाट पर राजी खुशी सम्पन्न हुआ, क्योंकि उसके बिना 'पिच्चर' अधूरी ही रहती!
उपसंहार : लुंगाड़ों की आत्मा कभी बिछड़ती नहीं। यहाँ भी सुखांत हो।
दिमाग नहीं लगाओगे तो फिल्म अच्छी लगेगी। मूर्खता में भी मनोरंजन होता है। फिल्म ख़तम, मज़ा हजम ! बाहर आकर भूलना बेहतर होता है।
फिल्म के 168 मिनट में दो बातें अच्छी लगीं , पहली बात हुनर का कोई जेंडर नहीं होता।
दूसरी बात - भले ही आप ड्राइविंग सीट पर हों और स्टेयरिंग आप के हाथ में हो, पर डेस्टिनेशन तो परिवार ही तय करता है।
-डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
July 28, 2023